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चतुर्विंशतितमं पर्व
४८१
कर्तरीच्छेदनोद्भूतं छिन्नं संबन्धसंयुतम् । विच्छिन्नं तु तदुभूतं संबन्धपरिवर्जितम् ॥४२॥ पत्रवस्त्रसुवर्णादिसंभवं स्थिरचञ्चलम् । निर्णिन्ये सा परं चार्वी संवृतासंवृतादिजम् ॥४३॥ आई शुष्कं तदुन्मुक्तं मिश्रं चेति चतुर्विधम् । माल्यं तत्राईपुष्पादिसंभवं प्रथमं मतम् ॥४४॥ शुष्कपत्रादिसंभूतं शुष्कमुक्तं तदुज्झितम् । सिक्थकादिसमुद्भूतं संकीणं तु त्रिसंकरात् ॥४५॥ रणप्रबोधनव्यूहसंयोगादिमिरन्वितम् । तद्विधातुमलं प्राज्ञा साज्ञासीत् पूरणादिजम् ॥४६॥ योनिद्रव्यमधिष्टानं रसो वीयं च कल्पना । परिकर्म गुणा दोषा युक्तिरेषा तु कौशलम् ॥४७॥ योनिर्विशिष्टमलादिद्रव्यं तु तगरादिकम् । यद्वर्णवर्तिकाद्येतदधिष्ठानं प्रकीर्तितम् ॥४८॥ कषायो मधुरस्तिक्तः कटुकाम्लश्च कीर्तितः । रसः पञ्चविधो यस्य निर्हारेण विनिश्चयः ॥४९॥ द्रव्याणां शीतमुष्णं च वीर्य तत्र द्विधा स्मृतम् । कल्पनात्र विवादानुवादसंवादयोजनम् ॥५०॥ परिकर्म पुनः स्नेहशोधनक्षालनादिकम् । ज्ञानं च गुणदोषाणां पाटवादीतरात्मनाम् ॥५१॥ स्वतन्त्रानुगताख्येन तां भेदेन समन्विताम् । गन्धयुक्तिमसौ सर्वामजानाद्युक्तविभ्रमा ॥५२॥ भक्ष्यं भोज्यं च पेयं च लेह्यं चूष्यं च पञ्चधा । आसाद्यं तत्र भक्ष्यं तु कृत्रिमाकृत्रिमं स्मृतम् ॥५३॥ भोज्यं द्विधा यवाग्वादिविशेषाश्चौदनादयः । शीतयोगो जलं मद्यमिति पेयं विधोदितम् ॥५४॥ रागखाण्डवलेह्याख्यं लेद्यं त्रिविधमुच्यते । कृत्रिमाकृत्रिमं चूष्यं द्विविधं परिकीर्तितम् ॥५५॥
छिन्न कहते हैं । जो कैंची आदिसे काटकर बनाया जाता है तथा अन्य अवयवोंके सम्बन्धसे रहित होता है उसे अच्छिन्न कहते हैं ॥४१-४२॥ यह पत्रच्छेद्यक्रिया पत्र, वस्त्र तथा सुवर्णादिके ऊपर की जाती है तथा स्थिर और चंचल दोनों प्रकारको होती है । सुन्दरी केकयाने इस कलाका अच्छी तरह निर्णय किया था॥४३।। आर्द्र, शुष्क, तदुन्मुक्त और मिश्रके भेदसे मालानिर्माणको कला चार प्रकारकी है। इनमेंसे गीले अर्थात् ताजे पुष्पादिसे जो माला बनायी जाती है उसे आर्द्र कहते हैं, सूखे पत्र आदिसे जो बनायी जाती है शुष्क कहते हैं। चावलोंके सीथ अथवा जवा आदिसे जो बनायी जाती है उसे तदुज्झित कहते हैं और जो उक्त तीनों चीजोंके मेलसे बनायी जाती है उसे मिश्र कहते हैं ॥४४-४५॥ यह माल्यकर्म रणप्रबोधन, व्यूहसंयोग आदि भेदोंसे सहित होता है वह बुद्धिमती केकया इस समस्त कार्यको करना अच्छी तरह जानती थी ॥४६।। योनिद्रव्य, अधिष्ठान, रस, वीर्य, कल्पना, परिकर्म, गुण-दोष विज्ञान तथा कौशल ये गन्धयोजना अर्थात् सुगन्धित पदार्थ निर्माणरूप कलाके अंग हैं। जिनसे सुगन्धित पदार्थोंका निर्माण होता है ऐसे तगर आदि योनिद्रव्य हैं, जो धूपबत्ती आदिका आश्रय है उसे अधिष्ठान कहते हैं, कषायला, मधुर, चिरपरा, कड़आ और खट्टा यह पांच प्रकारका रस कहा गया है जिसका सुगन्धित द्रव्यमें खासकर निश्चय करना पड़ता है ॥४७-४९॥ पदार्थोंकी जो शीतता अथवा उष्णता है वह दो प्रकारका वोर्य है। अनुकूल-प्रतिकूल पदार्थों का मिलाना कल्पना है ।।५०॥ तेल आदि पदार्थोंका शोधना तथा धोना आदि परिकम कहलाता है, गुण अथवा दोषका जानना सो गुण-दोष विज्ञान है और परकीय तथा स्वकीय वस्तुको विशिष्टता जानना कौशल है ॥५१॥ यह गन्धयोजनाकी कला स्वतन्त्र और अनुगतके भेदसे सहित है। केकया इस सबको अच्छी तरह जानती थी ॥५२॥ भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य और चूष्यके भेदसे भोजन सम्बन्धी पदार्थोके पांच भेद हैं। इनमेंसे जो स्वाद के लिए खाया जाता है उसे भक्ष्य कहते हैं। यह कृत्रिम तथा अकृत्रिमके भेदसे दो प्रकारका है ॥५३॥ जो क्षुधा-निवृत्तिके लिए खाया जाता है उसे भोज्य कहते हैं, इसके भी मुख्य और साभककी अपेक्षा दो भेद हैं ? ओदन. रोटी आदि मख्य भोज्य हैं और लप्सी. दाल, शाक आदि साधक भोज्य हैं ॥५४॥ शीतयोग ( शर्बत), जल और मद्यके भेदसे पेय तीन प्रकारका कहा
१. २. भोग्यं म.।
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