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चतुविशतितमं पर्व
४७९ आन्ध्री च मध्यमोदीच्या स्मृता कर्मारवीति च । प्रोक्ताथ नन्दनी चान्या कैशिकी चेति जातयः ॥१४॥ इमाभिर्जातिमिर्युक्तमष्टामिर्दशभिस्तथा । अलंकारैरमीमिश्च त्रयोदशमिरन्वितम् ॥१५॥ प्रसमादिः प्रसन्नान्तस्तथा मध्यप्रसादवान् । प्रसन्नाद्यवसानश्च चतुर्धा स्थायिभूषणम् ॥१६॥ निर्वृत्तः प्रस्थितो बिन्दुस्तथा प्रेङ्खोलितः स्मृतः । तारो मन्द्रः प्रसन्नश्च षोढा संचारिभूषणम् ॥१७॥ आरोहिणः प्रसन्नादिरेकमेव विभूषणम् । प्रसन्नान्तस्तथा तुल्यः कुहरश्चावरोहिणः ॥१८॥ गदितौ द्वावलङ्कारावित्यलङ्कारयोजनम् । अवागात् साधुगीतं च लक्षणरेमिरन्वितम् ॥१९॥ ततं तन्त्रीसमुत्थानमवनद्धं मृदङ्गजम् । शुषिरं वंशसंभूतं धनं तालसमुत्थितम् ॥२०॥ चतुर्विधमिदं वाद्यं नानाभेदैः समन्वितम् । जानाति स्म नितान्तं सा यथैवं विरलोऽपरः ॥२१॥ कलानां तिसृणामासां नाट्यमेकीकियोच्यते । शृङ्गारहास्यकरुणेवीराद्भुतभयानकाः ॥२२।। रौबीमरसशान्ताश्च रसास्तत्र नवोदिताः । वेत्ति स्म तदसौ बाला संप्रभेदमनुत्तमम् ॥२३॥ अनुवृत्तं लिपिज्ञानं यत्स्वदेशे प्रवर्तते । द्वितीयं विकृतं ज्ञेयं कल्पितं यत्स्वसंज्ञया ॥२४॥ प्रेत्यङ्गादिषु वर्णेषु तत्त्वं सामयिकं स्मृतम् । नैमित्तिकं च पुष्पादिद्रव्यविन्यासतोऽपरम् ॥२५॥ प्राच्यमध्यमयौधेयसमाद्रादिमिरन्वितम् । लिपिज्ञानमसौ बाला किल ज्ञातवती परम् ॥२६॥ अस्त्युक्तिकौशल नाम भिसंस्थानादिमिः कला । स्थानं स्वरोऽथ संस्कारो विन्यासः काकुना सह ॥२७॥ समुदायो विरामश्च सामान्यामिहितस्तथा । समानार्थत्वभाषा च जातयश्च प्रकीर्तिताः ॥२८॥
उरः कण्ठः शिरश्चेति स्थानं तत्र त्रिधा स्मृतम् । उक्त एव स्वरः पूर्व षड्जादिः सप्तभेदकः ॥२९॥ आन्ध्री, मध्यमोदीच्या, कर्मारवी, नन्दिनी और कैशिकी ये दश जातियां हैं। सो जो संगीत इन आठ अथवा दश जातियोंसे युक्त था तथा इन्हीं और आगे कहे जानेवाले तेरह अलंकारोंसे सहित था ॥१२-१५॥ प्रसन्नादि, प्रसन्नान्त, मध्यप्रसाद और प्रसन्नाद्यवसान ये चार स्थायी पदके अलंकार हैं ।।१६।। निवृत्त, प्रस्थित, बिन्दु, खोलित, तार-मन्द्र और प्रसन्न ये छह संचारी पदके अलंकार हैं ||१७|| आरोही पदका प्रसन्नादि नामका एक ही अलंकार है और अवरोही पदके प्रसन्नान्त तथा कुहर ये दो अलंकार हैं। इस प्रकार तेरह अलंकार हैं सो इन सब लक्षणोंसे सहित उत्तम संगीतको वह अच्छी तरह जानती थी ॥१८-१९|| तन्त्री अर्थात् वीणासे उत्पन्न होनेवाला तत, मृदंगसे उत्पन्न होनेवाला अवनद्ध, बाँसुरीसे उत्पन्न होनेवाला शुषिर और तालसे उत्पन्न होनेवाला घन ये चार प्रकारके वाद्य हैं, ये सभी वाद्य नाना भेदोंसे सहित हैं। वह केकया इन सबको इस तरह जानती थी कि उसकी समानता करनेवाला दूसरा व्यक्ति विरला ही था ॥२०-२१॥ गीत, नृत्य और वादित्र इन तीनोंका एक साथ होना नाट्य कहलाता है। शृंगार, हास्य, करुणा, वीर, अद्भुत, भयानक, रौद्र, बीभत्स और शान्त ये नौ रस कहे गये हैं। वह बाला केकया उन्हें अनेक अवान्तर भेदोंके साथ उत्कृष्टतासे जानती थी ।।२२-२३॥ जो लिपि अपने देश में आमतौरसे चलती है उसे अनुवृत्त कहते हैं। लोग अपने-अपने संकेतानुसार जिसकी कल्पना कर लेते हैं उसे विकृत कहते हैं। प्रत्यंग आदि वर्गों में जिसका प्रयोग होता है उसे सामयिक कहते हैं
और वर्णो के बदले पुष्पादि पदार्थ रखकर जो लिपिका ज्ञान किया जाता है उसे नैमित्तिक कहते हैं। इस लिपिके प्राच्य, मध्यम, यौधेय, समाद्र आदि देशोंकी अपेक्षा अनेक अवान्तर भेद होते हैं सो केकया उन सबको अच्छी तरह जानती थी ॥२४-२६॥ जिसके स्थान आदिके अपेक्षा अनेक भेद हैं ऐसी उक्तिकोशल नामकी कला है। स्थान, स्वर, संस्कार, विन्यास, काकु, समुदाय, विराम, सामान्याभिहित, समानार्थत्व, और भाषा ये जातियाँ कही गयी हैं ॥२७-२८।। इनमें से १. रन्विता । २. कारुण्य ब., म.। ३. सप्तभेद- म. । ४. अनुवृत्तिलिपि ब. । ५. अत्यङ्गादिषु म. । ६. अस्युक्ति म.। ७. भिन्न स्थानादिभिः म.।
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