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पपपुराणे विद्युद्विलसितो नाम चोदितस्तेन खेचरः । निकृत्य तस्य मूर्धानं स्वामिनेऽदर्शयन्मुदा॥५४॥ श्रुतान्तःपुरजाक्रन्दो निक्षिप्यैतच्छिरोऽम्बुधौ । जनकेऽपि तथा चक्रे निर्दयं स विचेष्टितम् ॥५५॥ ततः कृतिनमात्मानं कृत्वा सोदरवत्सलः । ययौ विभीषणो लङ्का प्रमोदपरिपूरितः ॥५६॥ विप्रलापं परं कृत्वा विदित्वा पुस्तकर्म च । तिं दाशरथः प्राप परिवर्गः सविस्मयः ॥५७॥ विभीषणोऽपि संप्राप्य पुरीमशुभशान्तये । दानपूजादिकं चक्रे कर्म सञ्जनितोत्सवम् ॥५८॥ बभूव च मतिस्तस्य कदाचिच्छान्तचेतसः । कर्मणामिति वैचित्र्यात् पश्चात्तापमुपेयुषः ॥५९॥
उपजातिवृत्तम् असत्यभीत्या क्षितिगोचरौ तौ निरर्थक प्रेतगति प्रणीतौ । आशीविषाङ्गप्रभवोऽपि सर्पस्ताक्ष्यस्य शक्नोति किमु प्रहर्तुम् ॥६०॥ 'सुलेशशौर्यः क्षितिगोचरः क्व व रावणः शक्रसमानशौर्यः । वेभः सशको मदमन्दगामी व केसरी वायुसमानवेगः ॥६१॥
इन्द्रवज्रावृत्तम् यद्यत्र यावच्च यतश्च येन दुःखं सुखं वा पुरुषेण लभ्यम् । तत्तत्र तावच्च ततश्च तेन संप्राप्यते कर्मवशानुगेन ६२॥ सम्यग्निमित्तं यदि वेत्ति कश्चिच्छु यो न कस्मात् कुरुते निजस्य । येनेह लोके लभतेऽतिसौख्यं मोक्षे च देहस्यजनात् पुरस्तात् ॥६३॥
निःसन्देह तथा निर्भय हो राजमहलमें प्रवेश किया। वहां जाकर उसने अन्तःपुरके बीच में स्थित राजा दशरथको स्पष्ट रूपसे देखा ॥५३॥ उसी समय उसके द्वारा प्रेरित विद्युद्विलसित नामक विद्याधरने दशरथका शिर काटकर बड़े हर्षसे अपने स्वामी-विभीषणको दिखाया ।।५४|| तदनन्तर जिसने अन्तःपुरके रुदनका शब्द सुना था ऐसे
परके मदनका शब्द सना था ऐसे विभीषणने उस कटे हए शिरको समुद्रम गिरा दिया और राजा जनकके विषयमें भी ऐसी ही निर्दय चेष्टा की ॥५५॥ तदनन्तर भाईके स्नेहसे भरा विभीषण अपने आपको कृतकृत्य मानकर हर्षित होता हुआ लंका चला गया ॥५६॥ दशरथका जो परिजन था उसने पहले बहुत ही विलाप किया पर अन्तमें जब उसे यह विदित हुआ कि वह पुतला था तब आश्चर्य करता हुआ धैर्यको प्राप्त हुआ ॥५७|| विभीषणने भी नगरीमें जाकर अशुभ कर्मको शान्तिके लिए बड़े उत्सवके साथ दान-पूजा आदि शुभ कर्म किये ॥५८||
तदनन्तर किसी समय जब उसका चित्त शान्त हुआ तब कर्मोकी इस विचित्रतासे पश्चात्ताप करता हुआ इस प्रकार विचार करने लगा कि ॥५९|| मिथ्या भयसे मैंने उन बेचारे भूमिगोचरियोंको व्यर्थ ही मारा क्योंकि सर्प आशीविषके शरीरसे उत्पन्न होनेपर भी क्या गरुड़के ऊपर प्रहार करनेके लिए समर्थ हो सकता है ? अर्थात् नहीं ॥६०।। अत्यन्त तुच्छ पराक्रमको धारण करनेवाला भूमिगोचरी कहाँ और इन्द्रके समान पराक्रमको धारण करनेवाला रावण कहाँ ? शंकासे सहित तथा मदसे धीरे-धीरे गमन करनेवाला हाथी कहां और वायुके समान वेगशाली सिंह कहाँ ? ॥६१।। जिस पुरुषको जहां जिससे जिस प्रकार जितना और जो सुख अथवा दुःख मिलना है कर्मोंके वशीभूत हुए उस पुरुषको उससे उस प्रकार उतना और वह सुख अथवा दुःख अवश्य ही प्राप्त होता है ॥६२॥ यदि कोई अच्छी तरह निमित्तको जानता है तो वह अपनी आत्माका कल्याण क्यों नहीं करता ? जिससे कि इस लोकमें तथा आगे चलकर शरीरका त्याग
१. सुलेशशौर्यों म.। २. क्षितिगोचरी म.।
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