Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 521
________________ द्वाविंशतितम पर्व ४७१ मित्राया जनिता यस्मात् सुचेष्टा रूपशालिनी । सुमित्रेति ततः ख्याति भुवने समुपागता ॥१७५॥ महाराजसुतामन्यां प्रापासौ सुप्रभाश्रुतिम् । लावण्यसंपदा बाला जनयन्तीं श्रियस्मपाम् ॥१७६॥ स सम्यग्दर्शनं लेभे राज्यं च परमोदयम् । आये रत्नमतिस्तस्य चरमे तृणशेमुषी ॥१७७॥ अधोगतिर्यतो राज्यादत्यक्तादुपजायते । सम्यग्दर्शनयोगात्तु गतिरूव॑मसंशया ॥१७॥ ये भरतायैर्नृपतिमिरुद्धाः कारितपूर्वा जिनवरवासाः। भगमुपेतान् क्वचिदपि रम्यान् सोऽनयदेतानमिनवभावान् ॥१७९॥ इन्द्रनुतानां स्वयमपि रम्यान् तीर्थकराणां परमनिवासान् । रत्नसमूहः स्फुरदुरुमासः संततपूजामघटयदेषः ॥१८०॥ अन्यभवेषु प्रथितसुधर्माः प्राप्य सुराणां श्रियमतिरम्याम् । ईदृशजीवा पुनरिह लोके यान्ति समृद्धिं रविरुचिभासः ॥१८॥ इत्यार्षे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मचरिते सुकोशलमाहात्म्ययुक्त-दशरथोत्पत्त्यभिधानं नाम द्वाविंशतितम पर्व ॥२२॥ था ॥१७३-१७४।। चूंकि यह मित्रा नामक मातासे उत्पन्न हुई थी, उत्तम चेष्टाओंसे युक्त थी, तथा रूपवती थी इसलिए लोकमें सुमित्रा इस नामसे भी प्रसिद्धिको प्राप्त हुई थी। राजा दशरथने उसके साथ भी विवाह किया था ॥१७५।। इनके सिवाय लावण्यरूपी सम्पदाके द्वारा लक्ष्मीको भी लज्जा उत्पन्न करनेवाली सुप्रभा नामकी एक अन्य राजपुत्रोके साथ भी उन्होंने विवाह किया था ॥१७६।। राजा दशरथने सम्यग्दर्शन तथा परम वैभवसे युक्त राज्य इन दोनों वस्तुओंको प्राप्त था। सो प्रथम जो सम्यग्दर्शन है उसे वह रत्न समझता था और अन्तिम जो राज्य था उसे तृण मानता था ॥१७७। इस प्रकार माननेका कारण यह है कि यदि राज्यका त्याग नहीं किया जाये तो उससे अधोगति होती है और सम्यग्दर्शनके सुयोगसे निःसन्देह ऊध्वंगति होती है ॥१७८॥ भरतादि राजाओंने जो पहले जिनेन्द्र भगवान्के उत्तम मन्दिर बनवाये थे वे यदि कहीं भग्नावस्थाको प्राप्त हुए थे तो उन रमणीय मन्दिरोंको राजा दशरथने मरम्मत कराकर पुनः नवीनता प्राप्त करायी थी ॥१७९।। यही नहीं, उसने स्वयं भी ऐसे जिनमन्दिर बनवाये थे जिनकी कि इन्द्र स्वयं स्तुति करता था तथा रत्नोंके समूहसे जिनकी विशाल कान्ति स्फुरायमान हो रही थी ॥१८०।। गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन् ! अन्य भवोंमें जो धर्मका संचय करते हैं वे देवोंकी अत्यन्त रमणीय लक्ष्मी प्राप्त कर संसारमें पुनः राजा दशरथके समान भाग्यशालो जीव होते हैं और सूर्यके समान कान्तिको धारण करते हुए समृद्धिको प्राप्त होते हैं ।।१८१।। इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित, पद्मचरितमें सुकोशल स्वामीके माहात्म्यसे युक्त राजा दशरथकी उत्पत्ति का कथन करनेवाला बाईसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥२२॥ १. लावण्यसंपदं म. । २. -रू; म.। ३. समृद्धिरविरचिता सा (?) म. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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