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त्रयोविंशतितमं पर्व
विचित्रमणिभक्तीनि हेमपीठानि पार्थिव । दृष्टान्यत्यन्तरम्याणि वनचैत्यानि नन्दने ॥ १३ ॥ चामीकरमहास्तम्भयुक्तेषु स्फुरितांशुषु । भास्करालयतुल्येषु हारितोरणचारुषु ॥ १४ ॥ रतदामसमृद्धेषु महावैदिकभूमिषु । द्विपसिंहादिरूपाठ्य वैडूर्योदार भित्तिषु ॥ १५॥ कृतसंगीत दिव्य स्त्रीजन पूरितकुक्षिषु । अमरारण्य चैत्येषु जिनाचः प्रणता मया ॥ १६ ॥ चैत्यप्रभाविका साढ्यं कृत्वा मेरुं प्रदक्षिणम् । पयोदपटलं भित्त्वा समुल्लङ्घयोन्नतं नमः ॥ १७॥ वास्यान्तरगिरीन्द्राणां शिखरेषु महाप्रभाः । चैत्यालया जिनेन्द्राणां प्रणता बहवो मया ॥ १८ ॥ सर्वेषु तेषु चैत्येषु जिनानां प्रतियातनाः । अकृत्रिमा महाभासो मया पार्थिव वन्द्यते ॥१९॥ इत्युक्ते देवदेवेभ्यो नम इत्युद्गतध्वनिः । प्रणतं करयुग्मं च चक्रे दशरथः शिरः ॥ २० ॥ संज्ञया नारदेनाथ चोदिते जगतीपतिः । जनस्योत्सारणं चक्रे प्रतीहारेण सादरम् ॥२१॥ उपांशु नारदेनाथ जगदे कोशलाधिपः । शृणु स्वावहितो राजन् सद्भावं कथयामि ते ॥ २२॥ गत त्रिकूटशिखरं वन्दारहमुत्सुकः । वन्दितं शान्तिमवनं मया तत्र मनोरमम् ॥२३॥ भवत्पुण्यानुभावेन मया तत्र प्रधारणम् । श्रुतं विभीषणादीनां लङ्कानाथस्य मन्त्रिणाम् ॥२४॥ नैमित्तेन समादिष्टं तेन सागरबुद्धिना । भविता दशवक्त्रस्य मृत्युर्दाशरथिः किल ॥२५॥ दुहिता जनकस्यापि हेतुत्वमुपयास्यति । इति श्रुत्वा विषण्णात्मा निश्चिचार्ये विभीषणः ॥ २६ ॥
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वहाँके जिन मन्दिर देखे हैं || १२ || हे राजन् ! वहाँ नन्दनवनमें जो अत्यन्त मनोहर चैत्यालय हैं वे भी देखे हैं । उन मन्दिरोंमें अनेक प्रकारके मणियोंके बेलबूटे निकाले गये हैं तथा उनकी कुर्सियाँ सुवर्णनिर्मित हैं ||१३|| सो सुवर्णमय खम्भोंसे युक्त हैं, जिनमें नाना प्रकारकी किरणें देदीप्यमान हो रही हैं, जो सूर्य-विमानके समान जान पड़ते हैं, जो हार तथा तोरणोंसे मनोहर हैं, जो रत्नमयी मालाओं से समृद्ध हैं, जिनकी भूमियोंमें बड़ी विस्तृत वेदिकाएँ बनी हुई हैं, जिनकी वैदूर्यमणि निर्मित उत्तम दीवालें हाथी, सिंह आदिके चित्रोंसे अलंकृत हैं और जिनके भीतरी भाग संगीत करनेवाली दिव्य स्त्रियोंसे भरे हुए हैं, ऐसे देवारण्यके चैत्यालयों में जो जिनप्रतिमाएँ हैं उन सबके लिए मैंने नमस्कार किया ॥१४- १६ ॥ आकृत्रिम प्रतिमाओंकी प्रभाके विकाससे युक्त जो मेरु पर्वत है उसकी प्रदक्षिणा देकर तथा मेघ-पटलको भेदन कर बहुत ऊँचे आकाश में गया || १७॥ तथा कुलाचलोंके शिखरोंपर जो महादेदीप्यमान अनेक जिनचैत्यालय हैं उनकी वन्दना की है || १८ || हे राजन् ! उन समस्त चैत्यालयोंमें जिनेन्द्र भगवान्की महादेदीप्यमान अकृत्रिम प्रतिमाएँ हैं मैं उन सबको वन्दना करता हूँ ||१९|| नारदके इस प्रकार कहनेपर 'देवाधिदेवोंको नमस्कार हो' शब्दों का उच्चारण करते हुए राजा दशरथने दोनों हाथ जोड़े तथा शिर नम्रीभूत किया ॥२०॥
अथानन्तर संकेत द्वारा नारदकी प्रेरणा पाकर राजा दशरथने प्रतिहारीके द्वारा आदरके साथ सब लोगोंको वहाँसे अलग कर दिया || २१|| तदनन्तर जब एकान्त हो गया तब नारदने कोसलाधिपति राजा दशरथसे कहा कि हे राजन् ! एकाग्रचित्त होकर सुनो में तुम्हारे लिए एक उत्तम बात कहता हूँ ||२२|| मैं बड़ी उत्सुकताके साथ वन्दना करनेके लिए त्रिकूटाचल के शिखरपर गया था सो मैंने वहाँ अत्यन्त मनोहर शान्तिनाथ भगवान्के जिनालयकी वन्दना की ॥२३॥ तदनन्तर आपके पुण्य के प्रभावसे मैंने लंकापति रावणके विभीषणादि मन्त्रियोंका एक निश्चय सुना है ||२४|| वहाँ सागरबुद्धि नामक निमित्तज्ञानोने रावणको बताया है कि राजा दशरथका पुत्र तुम्हारी मृत्युका कारण होगा ||२५|| इसी प्रकार राजा जनककी पुत्री भी इसमें कारणपने को १. प्रतिमाः । २. अकृत्रिम महाभासो म, ख., ब., क. 1 ३. शृणुष्वावहितः ख., ब., म., ज. । ४. निश्वित्वाप म. ।
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