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त्रयोविंशतितमं पर्व
अन्यदाथ सुखासीनं सभायां पुरुतेजसम् । जिनराजकथासक्तं सुरेन्द्रसमविभ्रमम् ॥१॥ सहसा जनितालोको गगने देहतेजसा । समायपावबद्धारः' शिष्टो दशरथं सुधीः ॥२॥ कृत्वाभ्युत्थानमासीनमासने तं सुखावहे । दत्ताशीर्वचनं राजा पप्रच्छ कुशलं कृती ॥३॥ निवेद्य कुशलं तेन क्षेमं पृष्टो महीपतिः । सकलं क्षेममित्युक्त्वा पुनरेवमभाषत ॥४॥ आगम्यते कुतः स्थानाद्भगवन् विहृतं क्व च । किमु दृष्टं श्रुतं किंवा न ते देशोऽस्त्यगोचरः ॥५॥ ततो मनःस्थजैनेन्द्रवर्णनोद्भूतसंमदः । उन्नतं पुलकं बिभ्रदित्यभाषत नारदः ॥६॥ विदेह नृप यातोऽहमासं चारजेनेहितम् । जिनेन्द्रभवनाधारभूरिशैलविभूषितम् ॥७॥ तत्र निष्क्रमणं दृष्टं मया सीमन्धराहतः । नगयां पुण्डरीकिण्यां नानारत्रोरुतेजसि ॥८॥ विमानैर्विविधच्छायैः केतुच्छत्रविभूषितैः । यानैश्च विविधैर्दृष्टं देवागमनमाकुलम् ॥९॥ मुनिसुव्रतनाथस्य यथेह सुरपैः कृतम् । तथाभिषेचनं मेरौ मया तस्य मुनेः श्रुतम् ॥१०॥ सुव्रतस्य जिनेन्द्रस्य वाच्यमानं श्रुतं यथा । तथा मे चरितं तस्य तत्र गोचरितं दृशा ॥११॥ नानारत्नप्रभाढ्यानि तुङ्गानि विपुलानि च । दृष्टानि तत्र चैत्यानि कृतपूजान्यनारतम् ॥१२॥
अथानन्तर किसी समय विशाल तेजके धारक तथा इन्द्रके समान शोभासे सम्पन्न राजा दशरथ जिनराजकी कथा करते हुए सभामें सुखसे बैठे थे कि सहसा शरीरके तेजसे प्रकाश उत्पन्न करते हुए शिष्ट पुरुष तथा उत्तम बुद्धिके धारक नारदजी वहां आ पहुँचे ॥१-२॥ राजाने उठकर उनका सम्मान किया तथा सुखदायक आसनपर बैठाया। नारदने राजाको आशीर्वाद दिया। तदनन्तर बद्धिमान राजाने कुशल-समाचार प्रछा ॥३|| जब नारद कशल-समाचार कह चके तब राजाने क्षेम अर्थात् कल्याणरूप हो? यह पूछा। इसके उत्तरमें 'राजन् ! सब कल्याण रूप है' यह उत्तर दिया ॥४॥ इतनी वार्ता हो चुकनेके बाद राजा दशरथने फिर पूछा कि हे भगवन् ! आप किस स्थानसे आ रहे हैं ? और कहाँ आपका विहार हो रहा है ? आपने क्या देखा क्या सुना सो कहिए ? ऐसा कोई देश नहीं जहाँ आप न गये हों ॥५॥
तदनन्तर मनमें स्थित जिनेन्द्रदेव सम्बन्धी वर्णनसे जिन्हें आनन्द उत्पन्न हो रहा था तथा इसी कारण जो उन्नत रोमांच धारण कर रहे थे ऐसे नारदजी कहने लगे कि हे राजन् ! उत्तम जन जिसकी सदा इच्छा करते हैं तथा जो जिनमन्दिरोंके आधारभूत मेरु, गजदन्त, विजयाद्ध आदि पर्वतोंसे सुशोभित है ऐसे विदेह क्षेत्रमें गया था ॥६-७॥ वहाँ नाना रत्नोंके विशाल तेजसे युक्त पुण्डरीकिणी नगरीमें मैंने सीमन्धर स्वामीका दीक्षा कल्याणक देखा ॥८॥ पताकाओं और छत्रोंसे सुशोभित रंग-बिरंगे विमानों, तथा विविध प्रकारके वाहनोंसे व्याप्त देवोंका आगमन देखा ।।९।। मैंने वहाँ सुना था कि जिस प्रकार अपने इस भरत क्षेत्रमें इन्होंने मुनिसुव्रतनाथ भगवान्का सुमेरु पर्वतपर अभिषेक किया था वैसा ही वहाँ उन भगवानका इन्होंने सुमेरु पर्वतपर अभिषेक किया था ।।१०|| मुनिसुव्रत भगवान्का जैसा बाँचा गया चरित्र यहाँ सुना है वैसा ही वहाँ उनका चरित्र अपनी आँखोंसे देखा है ॥११॥ जो नाना प्रकारके रत्नोंकी प्रभासे व्याप्त हैं, ऊँचे हैं, विशाल हैं तथा जिनमें निरन्तर पूजा होती रहती है ऐसे १. नारदः। २. चारुजिनेहितं म., चारुजनोहितं ख., चारुजने हितं ज., ब., कः ।
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