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द्वाविंशतितमं पर्व
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सिंहस्येव यतो मांसमाहारोऽस्यामवत्ततः । सिंहसौदासशब्देन भुवने ख्यातिमागतः ॥१४७॥ दक्षिणापथमासाद्य प्राप्यानम्बरसंश्रयम् । श्रुत्वा धर्म बभूवासावणुव्रतधरो महान् ॥१४॥ ततो महापुरे राज्ञि मृते पुत्रविवर्जिते । स्कन्धमारोपितः प्राप राज्यं राजद्विपेन सः ॥१४९॥ ब्यसर्जयच्च पुत्रस्य नतये दूतमूर्जितः । सोऽलिखत्तव गह्यस्य न नमामीति निर्भयः ॥१५०॥ तस्योपरि ततो याति सौदासे विषयोऽखिलः । प्रपलायितुमारेभे भक्षणत्रासकम्पितः ॥१५॥ 'स जित्वा तनयं युद्ध राज्ये न्यस्य पुनः कृती । महासंवेगसंपन्नः प्रविवेश तपोवनम् ॥१५२॥ ततो ब्रह्मरथो जातश्चतुर्वक्त्रस्ततोऽभवत् । तस्माद्धमरथो जज्ञे जातः शतरथस्ततः ॥१५३॥ उदपादि पृथुस्तस्मादजस्तस्मात् पयोरथः । बभूवेन्द्ररथोऽमुष्मादिननाथरथस्ततः ॥१५४॥ मान्धाता वीरसेनश्व प्रतिमन्युस्ततः क्रमात् । नाम्ना कमलबन्धुश्च दीप्त्या कमलबान्धवः ॥१५५॥ प्रतापेन रवेस्तुल्यः समस्तस्थितिकोविदः । रविमन्युश्च विज्ञेयो वसन्ततिलकस्तथा ॥१५६॥ कुबेरदत्तनामा च कुन्थुभक्तिश्च कीर्तिमान् । शरमद्विरदौ प्रोक्तौ रथशब्दोत्तरश्रुती ॥१५७॥ मृगेशदमनामिख्यो हिरण्यकशिपुस्तथा । पुञ्जस्थलः ककुत्थश्च रघुः परमविक्रमः ॥१५८॥ इतीक्ष्वाकुकुलोद्भूताः कीर्तिता भुवनाधिपाः । भूरिशोऽन गता मोक्षं कृत्वा दैगम्बरं व्रतम् ॥१५९॥ आसीत्ततो विनीतायामनरण्यो महानृपः । अनरण्यः कृतो येन देशो वासयता जनम् ॥१६॥
लिया। अन्तमें वह छोड़े हुए मुर्दोको खाता हुआ दुःखी हो पृथ्वीपर भ्रमण करने लगा ||१४६।। जिस प्रकार सिंहका आहार मांस है उसी प्रकार इसका भी आहार मांस हो गया था। इसलिए यह संसारमें सिंहसौदासके नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ ॥१४७।।
अथानन्तर वह दक्षिण देशमें जाकर एक दिगम्बर मुनिके पास पहुंचा और उनसे धर्म श्रवण कर बड़ा भारी अणव्रतोंका धारी हो गया ॥१४८॥ तदनन्तर उसी समय महापर नगरका राजा मर गया था। उसके कोई सन्तान नहीं थी। सो लोगोंने निश्चय किया कि पट्टबन्ध हाथी छोड़ा जावे। वह जिसे कन्धेपर बैठाकर लावे उसे ही राजा बना दिया जाये। निश्चयानुसार पट्टबन्ध हाथी छोड़ा गया और वह सिंहसौदासको कन्धेपर बैठाकर नगरमें ले गया। फलस्वरूप उसे राज्य प्राप्त हो गया ॥१४९।। कुछ समय बाद जब सौदास बलिष्ठ हो गया तब उसने नमस्कार करनेके लिए पुत्रके पास दूत भेजा। इसके उत्तरमें पुत्रने निर्भय होकर लिख दिया कि चूंकि तुम निन्दित आचरण करनेवाले हो अतः तुम्हें नमस्कार नहीं करूंगा ||१५०॥ तदनन्तर सौदास पुत्रके ऊपर चढ़ाई करनेके लिए चला सो 'कहीं यह खा न ले' इस भयसे समस्त देशवासी लोगोंने भागना शुरू कर दिया ॥१५१।। अन्तमें सौदासने युद्ध में पुत्रको जीतकर उसे ही राजा बना दिया और स्वयं कृतकृत्य हो वह महावैराग्यसे युक्त होता हुआ तपोवनमें चला गया ॥१५२॥
तदनन्तर सिंहरथके ब्रह्मरथ, ब्रह्मरथके चतुर्मुख, चतुर्मुखके हेमरथ, हेमरथके शतरथ, शतरथके मान्धाता, मान्धाताके वीरसेन, वीरसेनके प्रतिमन्यु, प्रतिमन्युके दीप्तिसे सूर्यकी तुलना करनेवाला कमलबन्धु, कमलबन्धुके प्रतापसे सूर्यके समान तथा समस्त मर्यादाको जाननेवाला रविमन्यु, रविमन्युके वसन्ततिलक, वसन्ततिलकके कुबेरदत्त, कुबेरदत्तके कीर्तिमान् कुन्थुभक्ति, कुन्थुभक्तिके शरभरथ, शरभरथके द्विरदरथ, द्विरदरथके सिंहदमन, सिंहदमनके हिरण्यकशिपु, हिरण्यकशिपुके पुंजस्थल, पुंजस्थलके ककुत्थ और ककुत्थके अतिशय पराक्रमी रघु पुत्र हुआ ॥१५३-१५८॥ इस प्रकार इक्ष्वाकु वंशमें उत्पन्न हुए राजाओंका वर्णन किया। इनमें से अनेक राजा दिगम्बर व्रत धारण कर मोक्षको प्राप्त हुए ॥१५९॥ तदनन्तर राजा रघुके अयोध्यामें अनरण्य नामका ऐसा पुत्र हुआ कि जिसने लोगोंको बसाकर देशको अनरण्य अर्थात् वनोंसे रहित कर
१. स्रजित्वा म.। २. पुञ्जस्थलककुत्थश्च म.। ३. वनरहितः ।
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