Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 439
________________ सप्तदशं पवं सास्वं केसरिणो वक्त्रमधुना देवि यास्यसि । दंष्ट्राकरालमुद्वृत्तद्विरदक्षय कारणम् ॥ २५३ ॥ हा देवि ते गतः कालो दुर्जनस्य विधेर्वशात् । उपर्युपरिदुःखेन मम दुर्मतिकारणात् ॥२५४॥ परित्रायस्व हा नाथ ! पवनञ्जय ! गेहिनीम् । हा महेन्द्र ! कथं नेमां तनयां परिरक्षसि ॥ २५५ ॥ हाकिं केतुमति क्रूरे मुँधास्यां त्वयका कृतम् | हा करुणे मनोवेगे तनयां किं न रक्षसि ॥ २५६॥ मरणं राजपुत्रीयं प्राप्नोति विजने वने । कुरुत त्राणमेतस्याः कृपया वनदेवताः ॥ २५७ ॥ मुनेरपि तथा तस्य लोकतत्त्वावबोधिनः । शुभार्थं सूचनं वाक्यं संभवेदन्यथा किमु ॥ २५८ ॥ आक्रन्दमिति कुर्वाणा दोलारूढेव विह्वला । चक्रे वसन्तमालाशु स्वामिन्यन्तं गतागतम् ॥२५९॥ अथ भङ्गं गतः सिंहः शरभेण तलाहतः । अन्तर्दधे कृतार्थश्च शरभो निलये निजे ॥ २६० ॥ ततः स्वोपमं दृष्ट्वा विरतं युद्धमेतयोः । दुतं वसन्तमालागात् स्वेदिगात्रा पुनर्गुहाम् ॥२६१॥ अन्तःपल्लवकान्ताभ्यां हस्ताभ्यां कृतमार्गणा । क्वासि क्कासीति भीशेषात्कृतगद्गद निस्वना ॥२६२॥ ज्ञात्वा वसन्तमाला तां स्पर्शेनात्यन्तनिश्चलाम् । तां प्रतिप्राणनाशङ्कासमा कुलितमानसा ॥ २६३॥ धिय से देवि देवीति चालयन्ती पुनः पुनः । जगाद स्वामिनीवक्षोविन्यस्तकरपल्लवा ॥ २६४॥ ततोऽसौ तस्करस्पर्शादागत स्पष्टचेतना । चिरात्सखीयमस्मीति जगादास्पष्टया गिरा ॥ २६५॥ ततस्ते संगमात्प्राप्य कियतीमपि निरृतिम् । पुनर्जन्मेव मेनाते लब्धसंभाषणोद्यते ॥ २६६॥ ३८९ में आकर किसी तरह इस गुफा में आयी और 'निकट कालमें ही पतिका समागम प्राप्त होगा' यह कहकर मुनिराजने आश्वासन दिया पर अब हे देवि ! तुम सिंहके उस मुखमें जा रही हो जो ढ़ोंसे भयंकर है तथा उद्दण्ड हाथियोंके क्षयका कारण है || २५२ - २५३ ॥ हाय देवि ! दुष्ट विधाताके वश और मेरी दुर्बुद्धि के कारण तुम्हारा समय उत्तरोत्तर दुःखसे ही व्यतीत हुआ || २५४ || हा नाथ पवनंजय ! अपनी गृहिणीकी रक्षा करो । हा महेन्द्र ! तुम इस पुत्रीकी रक्षा क्यों नहीं करते हो ? || २५५ ॥ हा दुष्टा केतुमति ! तूने व्यर्थं ही इसके विषय में क्या अनर्थं किया ? हा दयावती मनोवेगे ! अपनी पुत्रीकी रक्षा क्यों नहीं कर रही हो ? || २५६ || यह राजपुत्री निर्जन वनमें मरणको प्राप्त हो रही है । हे वनदेवताओ ! कृपा कर इसकी रक्षा करो || २५७ || लोकके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाले उन मुनिके शुभसूचक वचन भी क्या अन्यथा हो जायेंगे ? || २५८ || इस प्रकार रुदन करती तथा झूलापर चढ़ी हुई के समान विह्वल वसन्तमाला जल्दी-जल्दी स्वामिनी के समीपगमन तथा आगमन कर रही थी अर्थात् साहस कर समीप आती थी फिर भयकी तीव्रता से दूर हट जाती थी || २५९ || अथानन्तर अष्टापदकी चपेट से आहत होकर सिंह नष्ट हो गया और कृतकृत्य होकर अष्टापद अपने स्थान में अन्तर्हित हो गया || २६० ॥ तदनन्तर स्वप्न के समान दोनों का युद्ध समाप्त हुआ देख पसीनासे लथ-पथ वसन्तमाला शीघ्र ही गुहामें आयी || २६१ ॥ गुहाके भीतर पल्लवके समान कोमल हाथोंसे अंजनाको खोजती हुई वसन्तमाला कह रही थी कि कहाँ हो ? कहाँ हो ? उस समय भी उसका पूरा भय नष्ट नहीं हुआ था इसलिए आवाज गद्गद निकल रही थी || २६२ ॥ वसन्तमालाने हाथ के स्पशंसे जाना कि यह बिलकुल निश्चल पड़ी हुई है । इसलिए उसका मन 'यह जीवित है या नहीं' इस आशंकासे व्याकुल हो उठा || २६३ ॥ वह उसके वक्षःस्थलपर हाथ रखकर बार-बार उकसाती हुई कह रही थी कि हे देवि ! देवि ! जिन्दा हो ? || २६४ ॥ तदनन्तर वसन्तमाला के हाथ के स्पर्शसे जब अंजनाको चेतना आयी और कुछ - कि यह सखी है तब अस्पष्ट वाणीमें उसने कहा कि 'मैं हूँ' || २६५ ॥ १. कारिणम् । २. दुर्गतिकारणात् म. । ३. मुद्वास्या त्वयि का कृता म । ४. माला तु म । ५. गतः भङ्ग स., ख. Jain Education International For Private & Personal Use Only देर बाद उसने समझ लिया तत्पश्चात् वे दोनों सखियाँ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604