________________
४१४
पद्मपुराणे अन्तर्धातृशतेनैतद्राक्षसानां बल क्षतम् । गोयूथयदरं चक्रे भ्रमणं भयसंकुलम् ॥४२॥ चक्रचापधनप्रासशतघ्नीप्रभृतीनि च । शस्त्राणि रक्षसां पेतुः करात्प्रस्वेदपिच्छलात् ॥४३॥ ततस्तं शरजालेन समालोक्याकुलीकृतम् । स्वसैन्यं वेगवद्वर्षहतोऽरुणकरोपमम् ॥४४॥ विंशत्यर्द्धमुखः क्रुद्धो भित्त्वा रिपुबलं क्षणात् । प्रविष्टः पातयन्वीरान् गजेन्द्र इव पादपान् ॥१५॥ ततोऽसौ युगपरपुत्रैः वरुणस्य समावृतः । आदित्य इव गर्जद्भिः प्रावृषेण्यबलाहकैः ॥४६॥ तस्येषुभिर्वपुर्भिन्नं सर्वदिग्भ्यः समागतैः । तथापि मानिसिंहोऽसौ न मुञ्चति रणाजिरम् ॥४७॥ भास्करश्रवणः श्रेष्ठो नृणामिन्द्रजितस्तथा । अन्ये च रक्षसां नाथा वरुणेनाग्रतः कृताः ॥४८॥ ततो लक्षीकृतं दृष्ट्वा शराणां वरुणात्मजैः । रावणं शोणितस्रुत्या किंशुकोत्करसंनिभम् ॥४९॥ रथमाशु समारुह्य महापुरुषमध्यगम् । बन्धुवत्प्रीतिचेतस्कः सं रराज तमोरविः ॥५०॥ मारुतिर्मारुतं वेगाजयन्' जयकृतादरः । उद्यतः कालवद्योद्धं रविमण्डलमासुरः ॥५१॥ तेन वारुणयः सर्वे प्रेरिताः प्रपलायिताः । महारयसमीरेण धनसंघा इवोन्नताः ॥५२॥ प्रविष्टः परसैन्यं स दृष्टोऽन्यत्र मुहुर्मुहुः । कदलीकाननच्छेदक्रीडां चक्रेऽरिमूर्तिषु ॥५३॥
कंचिल्लागूलपाशेन विद्यारचितमूर्तिना। आकर्षत्परमं वीरं स्नेहन सुहृदं यथा ॥५४॥ जित कर दिया ॥४१॥ जिसके अन्दर सौ भाई अपनी कला दिखा रहे थे ऐसी वरुणकी सेनासे खण्डित हुई रावणकी सेना गायोंके झुण्डके समान भयभीत हो तितर-बितर हो गयी ।।४२।। राक्षसोंके हाथ पसीनेसे गीले हो गये जिससे चक्र, धनुष, घन, प्रास, शतघ्नी आदि शस्त्र उनसे छूट-छूटकर नीचे गिरने लगे ॥४३।। तदनन्तर रावणने देखा कि हमारी सेना बाणोंके समूहसे व्याकुल होकर प्रातःकालीन सूर्य की किरणोंके समान लाल-लाल हो रही है तब वह बाणोंकी वेगशाली वर्षासे स्वयं ताडित होता हुआ भी क्रुद्ध हो क्षण एकमें शत्रुदलको भेदकर भीतर घुस गया और जिस प्रकार गजराज वृक्षोंको नीचे गिराता है उसी प्रकार वरुणकी सेनाके वीरोंको मार-मारकर नीचे गिराने लगा ॥४४-४५।। तदनन्तर वरुणके सौ पुत्रोंने रावणको इस प्रकार घेर लिया जिस प्रकार कि वर्षाऋतुके गरजते हुए बादल सूर्यको घेर लेते हैं ।।४६।। यद्यपि सब दिशाओंसे आनेवाले बाणोंसे रावणका शरीर खण्डित हो गया तो भी वह अभिमानी युद्धके मैदानको नहीं छोड़ रहा था ॥४७|| उधर वरुणने भी देदीप्यमान कानोंको धारण करनेवाले नरश्रेष्ठ इन्द्रजित् तथा राक्षसोंके अन्य अनेक राजाओंको अपने सामने किया अर्थात् उनसे युद्ध करने लगा ॥४८||
तदनन्तर वरुणके पुत्रने जिसे अपने बाणोंका निशाना बनाया था और जो रुधिरके बहनेसे पलाशके फूलोंके समूहके समान जान पड़ता था ऐसे रावणको देखकर हनूमान् शीघ्र ही महापुरुषोंके बीचमें चलनेपर रथपर सवार हुआ। उस समय उसका चित्त रावणके भाईके समान प्रीतिसे युक्त था तथा वह सूर्यके समान सुशोभित हो रहा था ।।४९-५०|| तत्पश्चात् जो अपने वेगसे पवनको जीत रहा था, विजय प्राप्त करने में जिसका आदर था और जो सूर्यमण्डलके समान देदीप्यमान हो रहा था ऐसा हनूमान् यमराजके समान युद्ध करनेके लिए उद्यत हुआ ॥५१॥ सो जिस प्रकार महावेगशाली वायुसे प्रेरित उन्नत मेघोंका समूह इधर-उधर उड़ जाता है उसी प्रकार हनूमान्के द्वारा प्रेरित हुए वरुणके सब पुत्र इधर-उधर भाग खड़े हुए ॥५२॥ वह बार-बार शत्रुओंके शरीरोंके साथ कदली वनको छेदनेकी क्रीड़ा करता था अर्थात् शत्रुओंके शरीरको कदली वनके समान अनायास ही काट रहा था ।।५३।। जिस प्रकार कोई पुरुष स्नेहके द्वारा अपने मित्रको खींच लेता है उसी प्रकार उसने किसी वीरको विद्यानिर्मित लांगूलरूपी पाशसे खींच लिया था ।।५४॥ और १. दशाननः । २. शोणितश्रत्या म.। ३. समासह्य । ४. पराजिततमो रविः म. । ५. -जयं जय- म । ६. वरुणस्यापत्यानि पुमांसः, वारुणयः । ७. महारथसमीरेण म.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org .