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एकविंशतितमं पर्व
वंशस्थवृत्तम् ततः समुद्यदिवसप्रभूपमश्चिरं स शक्यः कथमेव गोपितुम् । निवेदितो दुर्विधिनातिदुःखिना नृपाय केनापि नरेण निश्चितः ॥१६१॥
उपजातिवृत्तम् तस्मै नरेन्द्रो मुकुटादि हृष्टो विभूषणं सर्वमदान्महात्मा। घोषाख्यशाखानगरं च रम्यं महाधनग्रामशतेन युक्तम् ॥१६२।। पुत्रं समानाय्य च पक्षजातं स्थितं महातेजसि मातुरके। अतिष्ठिपत्तुङ्गविभूतियुक्तं निजे पदे पूजितसर्वलोकः ।।१६३॥ जाते यतस्तत्र बभूव रम्या पुरी विभूत्या किल कोशलाख्या। सुकोशलाख्यां स जगाम तस्माद् बालः समस्ते भुवने सुचेष्टः ।।१६।।
वंशस्थवृत्तम् ततो विनिष्क्रम्य निवासचारकादशिश्रियत् कीर्तिधरस्तपोवनम् । तपोमवेनैष रराज तेजसा धनागमोन्मुक्ततनुर्यथा रविः॥१६५॥
इत्याचे रविषेणाचार्यप्रोक्ते पद्मचरिते सुव्रत-वज्रबाहु-कीर्तिमाहात्म्यवर्णनं नामैकविंशतितमं पर्व ॥२१॥
समय गुप्त रक्खा गया ॥१६०॥ तदनन्तर उगते हुए सूर्यके समान वह बालक चिरकाल तक छिपाकर कैसे रक्खा जा सकता था ? फलस्वरूप किसी दरिद्र मनुष्यने पुरस्कार पानेके लोभसे राजाको उसकी खबर दे दी ॥१६१॥ राजाने हर्षित होकर उसके लिए मुकुट आदि दिये तथा विपुल धनसे युक्त सौ गाँवोंके साथ घोष नामका मनोहर शाखानगर दिया ॥१६२॥ और माताकी महा तेजपूर्ण गोदमें स्थित उस एक पक्षके बालकको बुलवाकर उसे बड़े वैभवके साथ अपने पदपर बैठाया तथा सब लोगोंका सन्मान किया ॥१६३।। चूंकि उसके उत्पन्न होनेपर वह कोसला नगरी वैभवसे अत्यन्त मनोहर हो गयी थी इसलिए उत्तम चेष्टाओंको धारण करनेवाला वह बालक 'सुकोसल' इस नामको प्राप्त हुआ ॥१६४॥
तदनन्तर राजा कीर्तिधर भवनरूपी कारागारसे निकलकर तपोवनमें पहुँचा और तप सम्बन्धी तेजसे वर्षाकालसे रहित सूर्यके समान अत्यन्त सुशोभित होने लगा ॥१६५।।
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य के द्वारा कथित पद्मचरितमें भगवान् मुनिसुव्रतनाथ
वज्रबाहु तथा राजा कीर्तिधरके माहात्म्यको कथन करनेवाला
इक्कीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥२१॥
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