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पपुराणे निम्रन्थं भवतो दृष्ट्वा माभून्निर्वेदधीरिति । तपस्विना प्रवेशोऽस्मिन्नगरेऽपि निवारितः ॥२७॥ गोत्रे परम्परायातो धर्मोऽयं भवतां किल । राज्ये अत्तनयं न्यस्य तपोवननिषेवणम् ॥२८॥ किं नास्मादपि जानासि मन्त्रिणां संप्रधारणम् । न कदाचिदतो गेहाल्लभसे यद्विनिर्गमम् ॥२९॥ एतस्मात् कारणात् सर्व बाह्यालीभ्रमणादिकम् । अमात्यैः कृतमत्रैव भवने नयशालिभिः ॥३०॥ ततो निशम्य वृत्तान्तं सकलं तन्निवेदितम् । अवतीर्य स्वरायुक्तः प्रासादापात् सुकोशलः॥३१॥ परिशिष्टातपत्रादिपृथिवीपतिलान्छनः । पद्मकोमलकान्तिभ्यां चरणाभ्यां श्रियान्वितः॥३२॥ इतो वरमुनिदृष्टो भवद्भिरिति नादवान् । परमोत्कण्ठया युक्तः संप्राप' पितुरन्तिकम् ॥३३॥ अस्यानुपदवीभूता महासंभ्रमसंगताः । छत्रधारादयः सर्वे व्याकुलीभूतचेतसः ॥३४॥ निविष्टं प्रासुकोदारे प्रवरेऽमुं शिलातले । वाष्पाकुलविशालाक्षस्त्रिः परीत्य सुमावनः ॥३५।। करयुग्मान्तिकं कृत्वा मूर्द्धानं स्नेहनिर्भरः । ननाम पादयोर्जानुमस्तकस्पृष्टभूतलः ॥३६॥॥ कृताञ्जलिरथोवाच विनयेन पुरस्थितः । व्रीडामिव परिप्राप्तो मुनेर्गेहादपाकृतेः ॥३७॥ अग्निज्वालाकुलागारे सुप्तः कश्चिन्नरो यथा । बोध्यते पटुनादेन समूहेन पयोमुचाम् ॥३८॥ तद्वत्संसारगेहेऽहं मृत्युजन्माग्निदीपिते । मोहनिद्रापरिष्वक्तो बोधितो भवता प्रमो ॥३९॥ प्रसादं कुरु मे दीक्षां प्रयच्छ स्वयमाश्रिताम् । मा मुष्माद् भवव्यसनसंकटात् ॥४०॥ ब्रवीति यावदेतावनतवक्त्रः सुकोशलः । तावत्सामन्तलोकोऽस्य समस्तः समुपागतः ॥४१॥
देखकर तुम्हारी बुद्धि वैराग्यमय न हो जावे इस भयसे नगरमें मुनियोंका प्रवेश रोक दिया गया है ।।२७।। परन्तु तुम्हारे कुलमें परम्परासे यह धर्म चला आया है कि पुत्रको राज्य देकर तपोवनकी सेवा करना ॥२८॥ तुम कभी घरसे बाहर नहीं निकल सकते हो इतनेसे ही क्या मन्त्रियोंके इस निश्चयको नहीं जान पाये हो ॥२९॥ इसी कारण नीतिके जाननेवाले मन्त्रियोंने तुम्ह आदिको व्यवस्था इसी भवनमें कर रखी है ॥३०॥
तदनन्तर वसन्तलता धायके द्वारा निरूपित समस्त वृत्तान्त सुनकर सुकोशल शीघ्रतासे महलके अग्रभागसे नीचे उतरा ॥३१॥ और छत्र चमर आदि राज-चिह्नोंको छोड़कर कमलके समान कोमल कान्तिको धारण करनेवाले पैरोंसे पैदल ही चल पड़ा। वह लक्ष्मीसे सुशोभित था तथा मार्गमें लोगोंसे पूछता जाता था कि यहां कहीं आप लोगोंने उत्तम मुनिराजको देखा है ? इस तरह परम उत्कण्ठासे युक्त सुकोशल राजकुमार पिताके समीप पहुँचा ॥३२-३३।। इसके जो छत्र धारण करनेवाले आदि सेवक थे वे सब व्याकुल चित्त होते हुए हड़बड़ाकर उसके पीछे दौड़ते आये ॥३४॥ जाते हो उसने प्रासुक विशाल तथा उत्तम शिलातल पर विराजमान अपने पिता कीर्तिधर मुनिराजकी तीन प्रदक्षिणाएँ दीं। उस समय उसके नेत्र आँसुओंसे व्याप्त थे, और उसकी भावनाएँ अत्यन्त उत्तम थीं ॥३५॥ उसने दोनों हाथ जोड़कर मस्तकसे लगाये तथा घुटनों और मस्तकसे पृथिवीका स्पर्श कर बड़े स्नेहके साथ उनके चरणोंमें नमस्कार किया ॥३६।। वह हाथ जोड़कर विनयसे मुनिराजके आगे बैठ गया। अपने घरसे मुनिराजका तिरस्कार होनेके कारण मानो वह लज्जाको प्राप्त हो रहा था ॥३७॥ उसने मुनिराजसे कहा कि जिस प्रकार अग्निकी ज्वालाओंसे व्याप्त घरमें सोते हुए मनुष्योंको तीव्र गर्जनासे युक्त मेघोंका समूह जगा देता है उसी प्रकार जन्म-मरणरूपी अग्निसे प्रज्वलित इस संसाररूपी घरमें मैं मोहरूपी निद्रासे आलिंगित होकर सो रहा था सो हे प्रभो ! आपने मुझे जगाया है ।।३८-३९।। आप प्रसन्न होइए तथा आपने स्वयं जिस दीक्षाको धारण किया है वह मेरे लिए भी दीजिये। हे भगवन् ! मुझे भी इस संसारके व्यसनरूपी संकटसे बाहर निकालिए ॥४०॥ नीचेकी ओर मुख किये सुकोशल जबतक मुनिराजसे १. संप्रापयितुरन्तिकम् म.। २. मामप्युत्तरयामुष्माद्- म. ।
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