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द्वाविंशतितमं पर्व
अन्येऽपि लिङ्गिनः सर्वे पुरान्निर्वासितास्तदा । कुमारो धर्मशब्द मा श्रौषीदिति नृपास्पदे ॥ १३॥ इति संतक्ष्यमाणं तं वाग्वास्या' मुनिपुङ्गवम् । श्रुत्वा दृष्ट्वा च संजातप्रत्यग्रौदारशोकिका || १४ || स्वामिनं प्रत्यभिज्ञाय भक्ता कीर्तिधरं चिरात् । धात्री सौकोशली दीर्घमरोदीमुक्तकण्ठिका ||१५|| श्रुत्वा तां रुदतीमा समागत्य सुकोशलः । जगाद सान्त्वयन्मातः केन तेऽपकृतं वद ॥ १६॥ गर्भधारणमात्रेण जनन्या समनुष्टितम् | त्वत्पयोमयमेतत्तु शरीरं जातमीदृशम् ॥१७॥ सा मे त्वं जननीतोऽपि परं गौरवमाश्रिता । वदापमानिता केन मृत्युवक्त्रं विविक्षुणा ||१८|| अद्य मे त्वं जनन्यापि परिभूता भवेद्यदि । करोम्यविनयं तस्या जन्तोरन्यस्य किं पुनः ॥ १९ ॥ ततस्तस्मै समाख्यातं वसन्तलतया तया । कृच्छ्रेण विरलीकृत्य नेत्राम्बुप्लव संततिम् ||२०|| अभिषिच्य शिशुं राज्ये भवन्तं यस्तपोवनम् । प्रविष्टस्ते पिता भीतो मवव्यसनपञ्जरात् ॥ २१ ॥ मिक्षार्थमागतः सोऽद्य प्रविष्टो भवतो गृहम् । जनन्यास्ते नियोगेन प्रतिहारैर्निराकृतः ||२२|| दृष्ट्वा निर्धार्यमाणं तं जातशोकोरुवेलया । रुदितं मयका वत्स शोकं धर्तुमशक्तया ||२३|| भवद्गौरवदृष्टायाः कुरुते कः पराभवम् । मम कारणमेतत्तु कथितं रुदितस्य ते ||२४|| प्रसादस्तेन नाथेन तदास्माकमकारि यः । स्मर्यमाणः शरीरं स दहत्येष निरङ्कुशः ||२५|| धृतमेतदपुण्यैमें शरीरं दुःखभाजनम् । वियोगे तस्य नाथस्य ध्रियते यदयोमयम् ॥ २६ ॥
ऐसे दुष्ट द्वारपालोंने उन मुनिराजको दूरसे ही शीघ्र निकाल दिया || १२ || इन्हें ही नहीं, 'राजभवन में विद्यमान राजकुमार धर्मका शब्द न सुन ले' इस भयसे नगर में जो और भी मुनि विद्यमान थे उन सबको नगरसे बाहर निकाल दिया ||१३||
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इस प्रकार वचनरूपी वसूलीके द्वारा छीले हुए मुनिराजको सुनकर तथा देखकर जिसका भारी शोक फिरसे नवीन हो गया था, तथा जो भक्ति से युक्त थी ऐसी सुकोसल धाय चिरकाल बाद अपने स्वामी कीर्तिधरको पहचानकर गला फाड़-फाड़कर रोने लगी ||१४-१५ ।। उसे रोती सुनकर सुकोशल शीघ्र ही उसके पास आया और सान्त्वना देता हुआ बोला कि हे माता ! कह तेरा अपकार किसने किया है ? || १६ || माताने तो इस शरीरको गर्भमात्र में ही धारण किया है पर आज यह शरीर तेरे दुग्ध-पानसे ही इस अवस्थाको प्राप्त हुआ है ||१७|| तू मेरे लिए मातासे भी अधिक गौरवको धारण करती है । बता, यमराज के मुखमें प्रवेश करनेकी इच्छा करनेवाले किस मनुष्यने तेरा अपमान किया है ? || १८ || यदि आज माताने भी तेरा पराभव किया होगा तो मैं उसकी अविनय करनेको तैयार हूँ फिर दूसरे प्राणोकी तो बात ही क्या है ? ||१९|| तदनन्तर वसन्तलता नामक धायने बड़े दुःखसे आँसुओंको धाराको कमकर सुकोशल से कहा कि 'तुम्हारा जो पिता शिशु अवस्था में ही तुम्हारा राज्याभिषेक कर संसाररूपी दुःखदायी पंजरसे भयभीत हो तपोवनमें चला गया था आज वह भिक्षाके लिए आपके घरमें प्रविष्ट हुआ सो तुम्हारी माताने अपने अधिकारसे उसे द्वारपालोंके द्वारा अपमानित कर बाहर निकलवा दिया || २०-२२ || उसे अपमानित होते देख मुझे बहुत शोक हुआ और उस शोकको मैं रोक नहीं सकी। इसलिए हे वत्स ! मैं रो रही हूँ ||२३|| जिसे आप सदा गौरवसे देखते हैं उसका पराभव कौन कर सकता है ? मेरे रोनेका कारण यही है जो मैंने आपसे कहा है ||२४|| उस समय स्वामी कीर्तिधरने हमारा जो उपकार किया था वह स्मरण में आते ही शरीरको स्वतन्त्रतासे जलाने लगता है ||२५|| पापके उदयसे दुःखका पात्र बननेके लिए ही मेरा यह शरीर रुका हुआ है । जान पड़ता है यह लोहे से बना है इसलिए तो स्वामीका वियोग होनेपर भी स्थिर है ||२६|| निर्ग्रन्थ मुनिको
१. वचनकुठारिकया । २. लोहमयम् ।
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