Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 511
________________ द्वाविंशतितमं पर्व कृच्छ्र ेण दधती गर्भमन्तःपुरसमन्विता । प्राप्ता विचित्रेमालाख्या देवी चास्य विषादिनी ॥४२॥ दीक्षाभिमुखं ज्ञात्वा भृङ्गझाङ्कारकोमलः । अन्तःपुरात् समुत्तस्थौ समं रुदितनिःस्वनः ॥४३॥ स्याच्चेद्विचित्रमालाया गर्भोऽयं तनयस्ततः । राज्यमस्मै मया दत्तमिति संभाष्य निःस्पृहः ||३४|| आशापाशं समुच्छिद्य निर्दह्य स्नेहपअरम् । कलत्रनिगडं भित्त्वा त्यक्त्वा राज्यं तृणं यथा ॥४५॥ अलंकारान् समुत्सृज्य ग्रन्थमन्तर्बहिः स्थितम् । पर्यङ्कासनमास्थाय लुञ्चित्वा केशसंचयम् ॥४६॥ महाव्रतान्युपादाय गुरोर्गुरुविनिश्चयः । पित्रा साकं प्रशान्तात्मा विजहार सुकोशलः ॥ ४७ ॥ कुर्वन्नित्र बलिं पद्मः पादारुणमरीचिभिः । संभ्राम्यन् धरणीं योग्यां विस्मितैरीक्षितो जनैः ॥४८॥ आर्तध्यायेन सम्पूर्णा सहदेवी मृता सती । तिर्यग्योनौ समुत्पन्ना दुर्दृष्टिः पापतत्परा ॥४९॥ तयोर्विहरतोर्युक्तं यत्रास्तमितशायिनोः । कृष्णीकुर्वन् दिशां चक्रमुपतस्थौ घनागमः ॥ ५० ॥ नमः पयोमुचां व्रातैरनुलिप्तमिवासितैः । वलाकाभिः क्वचिच्चक्रे कुमुदौधैरिवार्चनम् ॥ ५१ ॥ कदम्बस्थूलमुकुलः क्वणङ्गकदम्बकः । पयोदकालराजस्य यशोगानमिवाकरोत् ॥५२॥ नीलाञ्जनचयैoर्याप्तं जगत्तुङ्गनगैरिव । चन्द्रसूर्यौ गतौ क्वापि तर्जिताविव गर्जितैः ॥५३॥ अच्छिन्नजलधाराभिर्द्रवतीव' नमस्तलम् । तोषादिवोत्तमान् मह्या शब्पकञ्चुकमावृतम् ॥५४॥ यह कह रहा था तब तक उसके समस्त सामन्त वहाँ आ पहुँचे ||४१ ॥ सुकोशलकी स्त्री विचित्रमाला भी गर्भके भारको धारण करती, विषादभरी, अन्तःपुर के साथ वहाँ आ पहुँची ॥ ४२ ॥ सुकोशलको दीक्षाके सम्मुख जानकर अन्तःपुरसे एक साथ भ्रमरकी झंकारके समान कोमल रोनेकी आवाज उठ पड़ी ||४३॥ ४६१ तदनन्तर सुकोशलने कहा कि 'यदि विचित्रमाला के गर्भमें पुत्र है तो उसके लिए मैंने राज्य दिया' इस प्रकार कहकर उसने निःस्पृह हो, आशारूपी पाशको छेदकर, स्नेहरूपी पंजरको जलाकर, स्त्रीरूपी बेड़ीको तोड़कर, राज्यको तृणके समान छोड़कर, अलंकारोंका त्याग कर अन्तरंग - बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहका उत्सर्ग कर, पर्यंकासन से बैठकर, केशोंका लोंचकर पितासे महाव्रत धारण कर लिये । और दृढ़ निश्चय हो शान्त चित्त से पिता के साथ विहार करने लगा ||४४-४७|| वह विहार योग्य पृथिवीपर भ्रमण करता था तब पैरोंकी लाल-लाल किरणोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो कमलोंका उपहार ही पृथिवीपर चढ़ा रहा हो । लोग उसे आश्चर्यभरे नेत्रोंसे देखते थे || ४८ ॥ मिथ्यादृष्टि तथा पाप करनेमें तत्पर रहनेवाली सहदेवी आर्तध्यानसे मरकर तिथंच योनि में उत्पन्न हुई ||४९|| इस प्रकार पिता-पुत्र आगमानुकूल विहार करते थे । विहार करते-करते जहाँ सूर्य अस्त हो जाता था वे वहीं सो जाते थे । तदनन्तर दिशाओं को मलिन करता हुआ वर्षा काल आ पहुँचा ॥५०॥ काले-काले मेघोंके समूहसे आकाश ऐसा जान पड़ने लगा मानो गोबर से लीपा गया हो और कहीं-कहीं उड़ती हुई वलाकाओंसे ऐसा जान पड़ता था मानो उसपर कुमुदों के समूहसे अर्चा ही की गयी हो ॥ ५१ ॥ जिनपर भ्रमर गुंजार कर रहे थे ऐसी कदम्बकी बड़ी-बड़ी बोडियाँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो वर्षाकालरूपी राजाका यशोगान ही कर रहे हों ॥ ५२ ॥ जगत् ऐसा जान पड़ता था मानो ऊँचे-ऊँचे पर्वतोंके समान नीलांजनके समूहसे ही व्याप्त हो गया हो और चन्द्रमा तथा सूर्यं कहीं चले गये थे मानो मेवोंकी गर्जनासे तर्जित होकर ही चले गये थे ||५३|| आकाशतलसे अखण्ड जलधारा बरस रही थी सो उससे ऐसा जान पड़ता था मानो आकाशतल पिघल-पिघलकर बह रहा हो और पृथिवी में हरी-हरी घास उग रही थी उससे ऐसा जान पड़ता था मानो उसने सन्तोषसे घासरूपी कंचुक ( चोली ) ही पहन रखी हो ||५४ || १. वसन्तमालाख्या म० । २. द्रुवतीव म. । ३. मह्यां शव्यकञ्चुक - म. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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