Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 513
________________ द्वाविंशतितमं पर्व कङ्कगृद्धर्क्षगोमायुरव पूरितगह्वरम् । अर्धदग्धशवस्थानं भीषणं विषमावनि ||६८|| शिरःकपालसंघातैः क्वचित्पाण्डुरितक्षिति' । वसातिविस्रगन्धोग्रवेगवाहिसमीरणम् ॥६९॥ साट्टहासभ्रमद्भीमरक्षोवेतालसंकुलम् । तृणगुच्छलताजालपरिणद्धोरुपादपम् ॥ ७० ॥ raat धरावाषाढ्यां शुचिमानसौ । यदृच्छया परिप्राप्तौ विहरन्तौ तपोधनौ ॥७१॥ * चातुर्मासोपवासं तौ गृहीत्वा तत्र निःस्पृहौ । वृक्षमूले स्थितौ पत्रसंगप्रासुकिताम्भसि ॥ ७२ ॥ पर्यासनयोगेन कायोत्सर्गेण जातुचित् । वीरासनादियोगेन निन्ये ताभ्यां घनागमः ॥७३॥ ततः शरदृतुः प्राप सोद्योगाखिलमानवः । प्रत्यूष इव निःशेषजगदालोकपण्डितः ॥७४॥ सितच्छाया घनाः कापि दृश्यन्ते गगनाङ्गणे । 'विकासिकाशसंघातसंकाशा मन्दकम्पिताः ॥ ७५ ॥ घनागमविनिर्मुक्ते भाति खे पद्मबान्धवः । गते सुदुःषमाकाले भव्यबन्धुर्जिनो यथा ॥७६॥ तारानिकरमध्यस्थो राजते रजनीपतिः । कुमुदाकरमध्यस्थो राजहंसयुवा यथा ॥ ७७ ॥ ज्योत्स्नया प्लावितो लोकः क्षीराकूपारकल्पया । रजनीषु निशानाथ प्रणालमुखमुक्तया ॥७८॥ नद्यः प्रसन्नतां प्राप्तास्तरङ्गाङ्कितसैकताः । क्रौञ्चसारसचक्राह्ननादसंभाषणोद्यताः ॥७९॥ गम्भीर था, अनेक प्रकारके सर्प आदि हिंसक जन्तुओंसे व्याप्त था, पहाड़की छोटी-छोटी शाखाओंसे दुर्गं था, भयंकर जीवोंको भी भय उत्पन्न करनेवाला था, काक, गीध, रीछ तथा शृगाल आदिके शब्दों से जिसके गतं भर रहे थे, जहाँ अधजले मुरदे पड़े हुए थे, जो भयंकर था, जहाँकी भूमि ऊँची-नीची थी, जो शिरकी हड्डियोंके समूह से कहीं-कहीं सफेद हो रहा था, जहाँ चर्बीकी अत्यन्त सड़ी बाससे तीक्ष्ण वायु बड़े वेग से बह रही थी, जो अट्टहाससे युक्त घूमते हुए भयंकर राक्षस और वेतालोंसे युक्त था तथा जहाँ तृणोंके समूह और लताओंके जालसे बड़े-बड़े वृक्ष परिणद्ध - व्याप्त थे । ऐसे विशाल श्मशान में एक साथ विहार करते हुए, तपरूपी धनके धारक तथा उज्ज्वल मनसे युक्त धीरवीर पिता-पुत्र - दोनों मुनिराज आपाढ सुदी पूर्णिमाको अनायास ही आ पहुँचे ||६६-७१ || सब प्रकारकी स्पृहासे रहित दोनों मुनिराज, जहाँ पत्तोंके पड़नेसे पानी प्राक हो गया था ऐसे उस श्मशान में एक वृक्षके नीचे चार मासका उपवास लेकर विराजमान हो गये ॥ ७२ ॥ वे दोनों मुनिराज कभी पर्यंकासनसे विराजमान रहते थे, कभी कायोत्सर्गं धारण करते थे, और कभी वीरासन आदि विविध आसनोंसे अवस्थित रहते थे । इस तरह उन्होंने वर्षा - काल व्यतीत किया ॥ ७३ ॥ ४६३ तदनन्तर जिसमें समस्त मानव उद्योग-धन्धोंसे लग गये थे तथा जो प्रातःकालके समान समस्त संसारको प्रकाशित करने में निपुण थी ऐसी शरद् ऋतु आयी ||७४ | | उस समय आकाशांगणमें कहीं-कहीं ऐसे सफेद मेघ दिखाई देते थे जो फूले हुए काशके फूलोंके समान थे तथा मन्दमन्द हिल रहे थे ||७५ || जिस प्रकार उत्सर्पिणी कालके दुःषमा-काल बीतनेपर भव्य जीवोंके बन्धु श्रीजिनेन्द्रदेव सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार मेघोंके आगमनसे रहित आकाश में सूर्यं सुशोभित होने लगा || ७६ || जिस प्रकार कुमुदोंके बीच में तरुण राजहंस सुशोभित होता है उसी प्रकार ताराओं के समूह के बीच में चन्द्रमा सुशोभित होने लगा || ७७|| रात्रिके समय चन्द्रमारूपी प्रणालीके मुखसे निकली हुई क्षीरसागर के समान सफेद चांदनीसे समस्त संसार व्याप्त हो गया || ७८ || जिनके रेतीले किनारे तरंगोंसे चिह्नित थे, तथा जो क्रौंच सारस चकवा आदि पक्षियोंके शब्द के बहाने मानो परस्पर में वार्तालाप कर रही थीं ऐसी नदियाँ प्रसन्नताको प्राप्त हो गयी थीं ॥ ७९ ॥ | जिनपर भ्रमर चल रहे थे ऐसे कमलोंके समूह तालाबोंमें इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो मिथ्यात्व१. विषमावनिम् म. । २. क्षतिः म । ३. धोरो + आषाढ्यां आषाढमासपूर्णिमायाम्, घोरावर्षाढ्य (?) म. । ४. चतुर्मासो- ज. । ५ यत्र सङ्गम । विकासकाश म । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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