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द्वाविंशतितम पर्व
अथ घोरतपोधारी 'धरातुल्यक्षमः प्रभुः । मलकञ्चुकसंवीतो वीतमानो महामनाः ॥१॥ तपःशोषितसर्वाडो धीरो लञ्चविभूषणः । प्रलम्बितमहाबाहर्यगाध्वन्यस्तलोचनः ॥२॥ स्वभावान्मत्तनागेन्द्रमन्थरायणविभ्रमः । निर्विकारः समाधानी विनीतो लोभवर्जितः ॥३॥ अनुसूत्रसमाचारो दयाविमलमानसः । स्नेहपङ्कविनिर्मुक्तः श्रमणश्रीसमन्वितः ॥४॥ गृहपङ्क्तिक्रमप्राप्तं भ्राम्यन्नात्मन्चरं गृहम् । मुनिर्विवेश भिक्षार्थ चिरकालोपवासवान् ॥५॥ निरीक्ष्य सहदेवी तं गवाक्षनिहितेक्षणा । परमं क्रोधमायाता विस्फुरल्लोहितानना ॥६॥ प्रतीहारगणानूचे कुञ्चितोष्ठी दुराशया। श्रमणो गृहभोऽयमाशु निर्वास्यतामिति ॥७॥ मुग्धः सर्वजनप्रीतः स्वभावमृदुमानसः । यावन्निरीक्षते नैनं कुमारः सुकुमारकः ॥८॥ अन्यानपि यदीक्षे तु भवने नग्नमानवान् । निग्रहं वः करिष्यामि प्रतीहारा न संशयः ॥९॥ परित्यज्य दयामुक्को गतोऽसौ शिशुपुत्रकम् । यतः प्रभृति नामीषु तदारभ्य तिर्मम ॥१०॥ राज्यश्रियं द्विषन्त्येते महाशूरनिषेविताम् । नयन्त्यत्यन्तनिर्वेदं महोद्योगपरान्नरान् ॥११॥ क्रूरैरित्युदितैः क्षिप्रं दुर्वाक्य जनिताननैः । दूरं निर्धारितो" योगी वेत्रग्राहितपाणिभिः ॥३२॥
___ अथानन्तर जो घोर तपस्वी थे, पृथ्वीके समान क्षमाके धारक थे, प्रभु थे, जिनका शरीर मैलरूपी कंचुकसे व्याप्त था, जिन्होंने मानको नष्ट कर दिया था, जो उदार हृदय थे, जिनका समस्त शरीर तपसे सूख गया था, जो अत्यन्त धीर थे, केश लोंच करनेको जो आभूषणके समान समझते थे, जिनकी लम्बी भुजाएँ नीचेकी ओर लटक रही थीं, जो युगप्रमाण अर्थात् चार हाथ प्रमाण मार्गमें दृष्टि डालते हुए चलते थे, जो स्वभावसे ही मत्त हाथीके समान मन्दगतिसे चलते थे, विकार-शून्य थे, समाधान अर्थात् चित्तकी एकाग्रतासे सहित थे, विनीत थे, लोभरहित थे, आगमानुकूल आचारका पालन करते थे, जिनका मन दयासे निर्मल था, जो स्नेहरूपी पंकसे रहित थे, मुनिपदरूपी लक्ष्मीसे सहित थे और जिन्होंने चिरकालका उपवास धारण कर रखा था, ऐसे कीर्तिधर मुनिराज भ्रमण करते हुए गृहपंक्तिकें क्रमसे प्राप्त अपने पूर्व घरमें भिक्षाके लिए प्रवेश करने लगे ॥१-५।। उस समय उनकी गृहस्थावस्थाकी स्त्री सहदेवी झरोखेमें दृष्टि लगाये खड़ी थी सो उन्हें आते देख परमक्रोधको प्राप्त हुई। क्रोधसे उसका मुंह लाल हो । । ओंठ चाबती हुई उस दुष्टाने द्वारपालोंसे कहा कि यह मुनि घरको फोड़नेवाला है इसलिए यहाँसे शीघ्र ही निकाल दिया जाय ॥६-७|मुग्ध, सर्वजन प्रिय और स्वभावसे ही कोमल चित्तका धारक, सुकुमार कुमार जबतक इसे नहीं देखता है तबतक शीघ्र ही दूर कर दो। यही नहीं यदि मैं और भी नग्न मनुष्योंको महलके अन्दर देखूगी तो हे द्वारपालो! याद रखो मैं अवश्य ही तुम्हें दण्डित करूंगी। यह निर्दय जबसे शिशुपुत्रको छोड़कर गया है तभीसे इन लोगोंमें मेरा सन्तोष नहीं रहा ।।८-१०॥ ये लोग महाशूर वीरोंसे सेवित राज्यलक्ष्मीसे द्वेष करते हैं तथा महान् उद्योग करने में तत्पर रहनेवाले मनुष्योंको अत्यन्त निर्वेद प्राप्त करा देते हैं ॥११॥ सहदेवीके इस प्रकार कहनेपर जिनके मुखसे दुर्वचन निकल रहे थे तथा जो हाथमें वेत्र धारण कर रहे थे १. धरातुल्य: म. । २. संवीतवीतमानो म., ज.। ३. नागेन्द्रं म., ब.। ४. अनुस्नात ब.। ५. न्नात्मवरं म.। ६. कीर्तिधरपत्नी । ७. निरीक्ष्यते म.। ८. राजश्रियं ब., क.। ९. दुर्वाक्याद्वालिताननः म. । दुर्वाक्यं जनिताननः व.। १०. निर्घासितो म.। ११. वेशग्राहित- म.।
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