Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 505
________________ एकविंशतितमं पर्व ४५५ उपजातिवृत्तम् उत्सार्य यो भीषणमन्धकारं करोति निष्कान्तिकमिन्दुबिम्बम् । असौ रविः पावनप्रबोधः स्वर्मानमसारयितं न शक्तः ॥१४७॥ तारुण्यसूर्योऽप्ययमेवमेव प्रणश्यति प्राप्तजरोपरागः । जन्तुर्वराको वरपाशबद्धो मृत्योरवश्यं मुखमभ्युपैति ॥१४॥ उपेन्द्रवजावृत्तम् अनित्यमेतज्जगदेष मत्वा समासमेतानगदीदमात्यान् । ससागरां रक्षत भो धरित्रीमहं प्रयाम्येष विमुक्तिमार्गम् ।।१४९॥ उपजातिवृत्तम् इत्युक्तमात्रे बुधबन्धुपूर्णा सभा विषादं प्रगता तमूचे । राजंस्त्वमस्याः पतिरद्वितीयो विराजसे सर्ववसुंधरायाः ॥१५०॥ स्यक्ता वशस्था धरणी' स्वयेयं न राजते निर्जितशत्रुपक्षा। नवे वयस्युनतवीर्यराज्यं कुरुष्व तावत् सुरनाथतुल्यम् ॥१५१॥ वंशस्थवृत्तम् जगाद राजा भववृक्षसंकटां जरावियोगारतिवह्निदीपिताम् । निरीक्ष्य दीपों व्यसनाटवीमिमां भयं ममात्यन्तमुरु प्रजायते ॥१५२।। इन्द्रवम्रावृत्तम् तनिश्चितं मन्त्रिजनोऽवगत्य विध्यातमङ्गारचयं महान्तम् । आनाय्य मध्येऽस्य मरीचिरम्यं वैदूर्यमस्थापयदत्युदारम् ।।१५३॥ www wwwwwwwwwwwwwwwww भीषण अन्धकारको नष्ट कर चन्द्रमण्डलको कान्तिहीन कर देता है तथा कमलोंके वनको विकसित करता है वह सूर्य राहुको दूर करने में समर्थ नहीं है ।।१४७|| जिस प्रकार यह सूर्य नष्ट हो रहा है उसी प्रकार यह यौवनरूपी सूर्य भी जरारूपी ग्रहणको प्राप्त कर नष्ट हो जावेगा। मजबूत पाशसे बँधा हुआ यह बेचारा प्राणी अवश्य ही मृत्युके मुख में जाता है ।।१४८|| इस प्रकार समस्त संसारको अनित्य मानकर राजा कीर्तिधरने सभामें बैठे हुए मन्त्रियोंसे कहा कि अहो मन्त्री जनो! इस सागरान्त पथिवीकी आप लोग रक्षा करो। मैं तो मुक्तिके मार्गमें प्रयाण करता हूँ ॥१४९॥ राजाके ऐसा कहनेपर विद्वानों तथा बन्धुजनोंसे परिपूर्ण सभा विषादको प्राप्त हो उससे इस प्रकार बोली कि हे राजन! इस समस्त पथिवीके तम्ही एक अद्वितीय पति हो ॥१५०॥ यह पृथिवी आपके आधीन है तथा आपने समस्त शत्रुओंको जीता है, इसलिए आपके छोड़नेपर सुशोभित नहीं होगी। उन्नत पराक्रमके धारक ! अभी आपकी नयो अवस्था है इसलिए इन्द्रके समान राज्य करो ॥१५१॥ इसके उत्तरमें राजाने कहा कि जो जन्मरूपी वृक्षोंसे संकुल है, व्याप्त है, बुढ़ापा, वियोग तथा अरतिरूपी अग्निसे प्रज्वलित है, तथा अत्यन्त दीर्घ है ऐसी इस व्यसनरूपी अटवीको देखकर मुझे भारी भय उत्पन्न हो रहा है ।।१५२॥ जब मन्त्रीजनोंको राजाके दृढ़ निश्चयका बोध हो गया तब उन्होंने बहुतसे बुझे हुए अंगारोंका समूह बुझाकर उसमें किरणोंसे सुशोभित उत्तम वैडूर्यमणि रखा सो उसके प्रभावसे वह बुझे हुए अंगारोंका समूह प्रकाशमान हो गया ॥१५३॥ तदनन्तर १. धरणी च येयं म. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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