Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 503
________________ एकविंशतितमं पर्व ततः समाप्तयोगेन गुरुणेत्यनुमोदितः । महासंवेगसंपन्नस्त्यक्तवस्त्रविभूषणः ॥ १२१ ॥ पर्यङ्कासनमास्थाय रभसान्वितमानसः । केशापनयनं कृत्वा पल्लवारुणपाणिना ॥ १२२ ॥ जानानः प्रलघु देहमुल्लाघमिव तत्क्षणम् । दीक्षां संचक्ष्य वैवाहीं मोक्षदीक्षामशिश्रियत् ॥ १२३॥ त्यक्तरागमदद्वेषा जातसंवेगरंहसः । सुन्दरप्रमुखा वीराः कुमारा मारविभ्रमाः ॥ १२४॥ परमोत्साह संपन्नाः प्रणम्य मुनिपुङ्गवम् । षड्विंशतिरमा तेन राजपुत्रा प्रवव्रजुः ॥ १२५ ॥ तमुदन्तं परिज्ञाय सोदरस्नेहकातरा । वहन्ती पुरुसंवेगमदीक्षिष्ट मनोदया ॥ १२६ ॥ सितांशुकपरिच्छन्न विशालस्तनमण्डला । अल्पोदरी मकच्छन्ना जाता सातितपस्विनी ॥१२७॥ विजयस्यन्दनो वार्तां विदित्वा वाज्रबाहवीम् । शोकार्दितो जगादैवं सभामध्यव्यवस्थितः ॥ १२८॥ चित्रं पश्यत मे नप्ता वयसि प्रथमे स्थितः । विषयेभ्यो विरक्तारमा दीक्षां दैगम्बरोमितः ॥ १२९ ॥ मादृशोऽपि सुदुर्मोचैर्वर्षीयान् प्रवणीकृतः । भोगैर्यैस्ते कथं तेन कुमारेण विवर्जिताः ॥ १३० ॥ अथवानुगृहीतोऽसौ भाग्यवान्मुक्ति संपदा । भोगान् यस्तृणवत्यक्त्वा शीतीभावे व्यवस्थितः ॥१३१॥ मन्दभाग्योऽधुना चेष्टां कां व्रजामि जरार्दितः । सुचिरं वञ्चितः पापैर्विषयैर्मुखसुन्दरैः ॥१३२॥ इन्द्रनीलांशुसंघातसंकाशो योऽभवत् कथम् । केशभारः स मे जातः काशराशिसमद्युतिः ॥१३३॥ सितासितारुणच्छाये नेत्रे ये जनहारिणी । जाते संप्रति ते सुर्वेलीच्छन्नस्ववर्त्मनी ॥ १३४॥ तदनन्तर ध्यान समाप्त होनेपर मुनिराजने उसके इस कार्यकी अनुमोदना की । सो महासंवेगसे भरा वज्रबाहु वस्त्राभूषण त्याग कर उनके समक्ष शीघ्र ही पद्मासनसे बैठ गया । उसने पल्लवके समान लाल-लाल हाथोंसे केश उखाड़कर फेंक दिये । उसे उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो उसका शरीर रोगरहित होनेसे हलका हो गया हो। इस तरह उसने विवाह सम्बन्धी दीक्षाका परित्याग कर मोक्ष प्राप्त करानेवाली दीक्षा धारण कर ली ॥१२१ - १२३ ॥ तदनन्तर जिन्होंने राग, द्वेष और मदका परित्याग कर दिया था, संवेगकी ओर जिनका वेग बढ़ रहा था, तथा जो कामके समान सुन्दर विभ्रमको धारण करनेवाले थे, ऐसे उदयसुन्दर आदि छब्बीस राजकुमारोंने भी परमोत्साहसे सम्पन्न हो मुनिराजको प्रणाम कर दीक्षा धारण कर ली ॥१२४-१२५।। यह समाचार जानकर भाईके स्नेहसे भीरु मनोदयाने भी बहुत भारी संवेगसे युक्त हो दीक्षा ले ली ||१२६ || सफेद वस्त्रसे जिसका विशाल स्तनमण्डल आच्छादित था, जिसका उदर अत्यन्त कृश था और जिसके शरीरपर मैल लग रहा था ऐसी मनोदया बड़ी तपस्विनी हो गयी ||१२७|| वज्रबाहुके बाबा विजयस्यन्दनको जब उसके इस समाचारका पता चला तब शोकसे पीड़ित होता हुआ वह सभा के बीच में इस प्रकार बोला कि अहो ! आश्चर्यकी बात देखो, प्रथम अवस्थामें स्थित मेरा नाती विषयोंसे विरक्त हो दैगम्बरी दीक्षाको प्राप्त हुआ है ।। १२८ - १२९ ॥ मेरे समान वृद्ध पुरुष भी दुःखसे छोड़ने योग्य जिन विषयोंके अधीन हो रहा है वे विषय उस कुमारने कैसे छोड़ दिये ||१३० ॥ अथवा उस भाग्यशालीपर मुक्तिरूपी लक्ष्मीने बड़ा अनुग्रह किया है जिससे वह भोगोंको तृणके समान छोड़कर निराकुल भावको प्राप्त हुआ है ॥ १३१ ॥ प्रारम्भ में सुन्दर दिखनेवाले पापी विषयोंने जिसे चिरकालसे ठगा है तथा जो वृद्धावस्था से पीड़ित है ऐसा मैं अभागा इस समय कौन-सी चेष्टाको धारण करूँ ? || १३२ || मेरे जो केश इन्द्रनील मणिकी किरणोंके समान श्याम वर्णं थे वे ही आज कासके फूलोंकी राशिके समान सफ़ेद हो गये हैं ||१३३|| सफ़ेद काली और लाल कान्तिको धारण करनेवाले मेरे जो नेत्र मनुष्योंके मनको हरण १. पाणिनां म । २. संवीक्ष्य क. । ३. वज्रबाहुपितामहः । विजयस्यन्दिनो म, ज । ४. मुक्तसम्पदा म । ५. शान्तीभावे ब. । ६. वलीच्छन्नसुवर्त्मनी भ., क. 1 Jain Education International ४५३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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