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एकोनविंशतितम पर्व
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सोऽयं स्वकर्मवशतः कुलसंक्रमेण संप्राप्य
चारुकीर्तिः। ऐश्वर्यमद्भुततरं च समन्तभद्रं रक्षःपतिः परमसंसृतिसौख्यमेतः ।।१३७॥ सदृष्टिबोधचरणप्रतिपत्तिहेतौ दूरं गतेऽथ मुनिसुव्रतनाथतीर्थे । अत्यन्तमूढकविभिः परमार्थदूरैर्लोकेऽन्यथैव कथितः पुरुषः प्रधानः ॥१३८।।
मालिनीच्छन्दः विषयवशमुपेतैनष्टतत्त्वार्थबोधैः
कविमिरतिकुशीलैर्नित्यपापानुरक्तः । कुरचितगैरहेतुग्रन्थवाग्वागुरामिः
प्रगुणजनमृगौधो वध्यते मन्दभाग्यः ॥१३९।। इति विदितयथाववृत्तवस्तुप्रपञ्च
क्षतकुमतजनोक्तग्रन्थपङ्कप्रसङ्ग । भज सुरपतिवन्धं शास्त्ररत्नं जिनानां
रविसमधिकतेजः श्रेणिक श्रीविशाल ॥१४॥ इत्या रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मचरिते रावणसाम्राज्याभिधानं नामकोनविंशतितमं पर्व ॥१९॥
इति विद्याधरकाण्डं प्रथम समाप्तम् ।
ऐसा रावण, दुष्टजनोंको तो ऐसा भय उत्पन्न कर रहा था मानो शरीरधारी दण्ड अथवा मृत्यु ही हो। जब वह शस्त्रशालामें शस्त्रोंकी पूजा करता था तब ऐसा जान पडता था मानो इकदा हआ प्रचण्ड उल्काओंका समूह ही हो ।।१३६।। इस प्रकार विशाल तथा सुन्दर कीतिको धारण करनेवाला रावण स्वकीय कर्मोदयसे वंशपरम्परागत लंकापुरीको पाकर सर्वकल्याणयुक्त आश्चर्यकारक ऐश्वर्यको तथा संसार सम्बन्धी श्रेष्ठ सुखको प्राप्त हुआ था ॥१३७॥ गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे श्रेणिक ! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी प्राप्तिका कारण जो मुनिसुव्रत भगवानका तीर्थ था उसे व्यतीत हुए जब बहुत दिन हो गये तब परमार्थसे दूर रहनेवाले अत्यन्त मूढ़ कवियोंने इस प्रधान पुरुषका लोकमें अन्यथा ही कथन कर डाला ॥१३८।।।
जो विषयोंके अधीन हैं, जिनका तत्त्वज्ञान नष्ट हो गया है, जो अत्यन्त कुशील हैं और निरन्तर पापमें अनुरक्त रहते हैं ऐसे कवि लोग स्वरचित पापवधंक ग्रन्थरूपी जालसे मन्दभाग्य तथा अत्यन्त सरल मनुष्यरूपी मृगोंके समूहको नष्ट करते रहते हैं। इसलिए जिसने वस्तुका यथार्थस्वरूप समझ लिया है, जिसने मिथ्यादृष्टि जनोंके द्वारा रचित कुशास्त्ररूपी कीचड़का प्रसंग नष्ट कर दिया है, जिसका सूर्यके समान विशाल तेज है और जो लक्ष्मीसे विशाल है ऐसे है श्रेणिक! त इन्द्रद्वारा वन्दनीय जिनशास्त्ररूपी रत्नकी उपासना कर-उसीका अध्ययन-मनन कर ॥१३९-१४०।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्म वरितमें रावणके साम्राज्यका
कथन करनेवाला उन्नीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥१९॥ इस प्रकार विद्याधरकाण्ड नामक प्रथम काण्ड समाप्त हुआ।
१. राक्षसपुरं ख.। २. पुरुषप्रधानः क., ख । ३. -पाप-। ४. श्रीविशाल: म., ब., ज.।
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