Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 484
________________ पद्मपुराणे तस्मै समासतोऽवोचत् पुराणार्थ महामुनिः । यस वर्षशतेनापि सर्व कथयितुं क्षमम् ॥१३५॥ तिर्यग्नरकदःखानि कुमानुषभवांस्तथा। जीवः प्रपद्यते तावद्यावन्नायाति जैनताम् ।।१३६॥ अस्ति गोवर्धनाभिख्यो ग्रामो जनसमाकुलः । जिनदत्ताभिधानोऽत्र बभूव गृहिणां वरः ।।१३७।। यथा सर्वाम्बुधानानां सागरो मूर्द्धनि स्थितः । भधराणां च सर्वेषां मन्दरश्चारुकन्दरः ।।१३८।। ग्रहाणां हरिदश्वश्च' तृणानामिक्षुरर्चितः । ताम्बूलाख्या च वल्लीनां तरूणां हरिचन्दनः ॥१३९॥ कुलानामिति सर्वेषां श्रावकाणां कुलं स्तुतम् । आचारेण हि तत्पूतं सुगत्यर्जनतत्परम् ॥१४॥ स गृही तत्र जातः सन् कृत्वा श्रावकचेष्टितम् । गुणभूषणसंपन्नः प्रशस्तामाश्रितो गतिम् ॥१४१।। भार्या विनयवत्यस्य तद्वियोगेन दुःखिता । शीलशेखरसद्गन्धा गृहिधर्मपरायणा ॥१४२॥ स्वनिवेशे जिनेन्द्राणां कारयित्वा वरालयम् । प्रव्रज्य सुतपः कृत्वा जगाम गतिमर्चिताम् ॥१४३॥ तत्रैवान्योऽमवद् ग्रामे हेमबाहुमहागृही । आस्तिकः परमोत्साहो दुराचारपराङ्मुखः ॥१४४।। तया विनयवत्यासौ कारितं जैनमालयम् । अनुमोद्य महापूजा यक्षोऽभूदायुषः क्षये ॥१४५।। चतुर्विधस्य संघस्य निरतः पर्युपासने । सम्यग्दर्शनसंपन्नो जिनवन्दनतत्परः ॥१४६॥ ततः सुमानुषो देव इति त्रिः परिवर्तनम् । कुर्वन्नसौ महापुर्यामासीद्धर्मरुचिर्नृपः ।।१४७।। अस्य सानत्कुमारस्य पितासीत् सुप्रभाह्वयः। वरस्त्रीगुणमञ्जूषा माता तिलकसुन्दरी ॥१८॥ कृत्वा सुप्रभशिष्यत्वं महाव्रतधरस्ततः । महासमितिसंपन्नश्चारुगुप्तिसमावृतः ।।१४९।। इसके उत्तर में गणधर भगवान्ने संक्षेपसे ही पुराणका सार वर्णन किया क्योंकि उसका पूरा वर्णन तो सौ वर्षमें भी नहीं कहा जा सकता था ॥१३५।। उन्होंने कहा कि जबतक यह जीव जैनधर्मको प्राप्त नहीं होता है तबतक तिर्यंच नरक तथा कुमानुष सम्बन्धी दुःख भोगता रहता है ॥१३६|| पूर्वभवका वर्णन करते हुए उन्होंने कहा कि मनुष्योंसे भरा एक गोवर्धन नामका ग्राम था उसमें जिनदत्त नामका उत्तम गृहस्थ रहता था ॥१३७॥ जिस प्रकार समस्त जलाशयोंमें सागर, समस्त पर्वतोंमें सुन्दर गुफाओंसे युक्त सुमेरु पर्वत, समस्त ग्रहोंमें सूर्य, समस्त तृणोंमें इक्षु, समस्त लताओंमें नागवल्ली और समस्त वक्षोंमें हरिचन्दन वृक्ष प्रधान है, उसी प्रकार समस्त कूलोंमें श्रावकोंका कुल सर्वप्रधान है क्योंकि वह आचारको अपेक्षा पवित्र है तथा उत्तम गति प्राप्त करानेमें तत्पर है ॥१३८-१४०।। वह गृहस्थ श्रावक कुलमें उत्पन्न हो तथा श्रावकाचारका पालनकर गुणरूपी आभूषणोंसे युक्त होता हुआ उत्तम गतिको प्राप्त हुआ ॥१४१।। उसकी विनयवती नामकी पतिव्रता तथा गृहस्थका धर्म पालन करने में तत्पर रहनेवाली स्त्री थी सो पतिके वियोगसे बहुत दुःखी हुई ॥१४२॥ उसने अपने घरमें जिनेन्द्र भगवान्का उत्तम मन्दिर बनवाया तथा अन्तमें आर्यिकाकी दीक्षा ले उत्तम तपश्चरण कर देवगति प्राप्त की ॥१४३।। उसी नगरमें हेमबाहु नामका एक महागृहस्थ रहता था जो आस्तिक, परमोत्साही और दुराचारसे विमुख था ॥१४४॥ विनयवतीने जो जिनालय बनवाया था तथा उसमें जो भगवान्की महापूजा होती थी उसकी अनुमोदना कर वह आयुके अन्तमें यक्ष जातिका देव हुआ ॥१४५।। वह यक्ष चतुर्विध संघकी सेवामें सदा तत्पर रहता था। सम्यग्दर्शनसे सहित था और जिनेन्द्रदेवकी वन्दना करने में सदा तत्पर रहता था ॥१४६।। वहाँसे आकर वह उत्तम मनुष्य हुआ, फिर देव हुआ। इस प्रकार तीन बार मनुष्यदेवगतिमें आवागमन कर महापुरी नगरीमें धर्मरुचि नामका राजा हुआ। यह धर्मरुचि सनत्कुमार स्वर्गसे आकर उत्पन्न हुआ था। इसके पिताका नाम सुप्रभ और माताका नाम तिलकसुन्दरी था। तिलकसुन्दरी उत्तम स्त्रियोंके गुणोंकी मानो मंजूषा ही थी ।।१४७-१४८।। राजा धर्मरुचि सुप्रभ मुनिका शिष्य होकर पाँच महाव्रतों, पांच समितियों और तीन गुप्तियोंका चारक हो गया ।।१४९।। १. सूर्यः । २. हरिचन्दनम् म.। ३. यक्षीभूदा म.। ४. यस्य म., ज.। ५. पिता चासीत्प्रभाह्वयः ख. । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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