________________
४४३
विशतितमं पर्व एतज्ज्ञात्वा विचित्रं कलिकलुष महासागरावर्तमग्न
संसारप्राणिजातं' विरसगतिमहादुःखवप्रितप्तम् । कष्टं नेच्छन्ति केचित्सुकृतपरिचयं कर्तुमन्यस्तु कश्चित्
कृत्वा मोहावसानं रविरिव विमलं केवलज्ञानमेति ॥२५॥
इत्याचे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मचरिते तीर्थंकरभवानुकीर्तनं नाम विंशतितमं पर्व ॥२०॥
इस संसार-अटवीमें निरन्तर घूमते रहते हैं ।।२४९।। ये संसारके विविध प्राणी कलिकालरूपी अत्यन्त मलिन महासागरकी भ्रमरमें मग्न हैं तथा नरकादि नीच गतियोंके महादुःखरूपी अग्निमें सन्तप्त हो रहे हैं। ऐसा जानकर कितने ही निकट भव्य तो इस संसारकी इच्छा ही नहीं करते हैं। कुछ लोग पुण्यका परिचय करना चाहते हैं और कुछ लोग सूर्यके समान मोहका अवसान कर निर्मल केवलज्ञानको प्राप्त होते हैं ॥२५०॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्य कथित पद्मचरितमें तीर्थकरादिके भवोंका
वर्णन करनेवाला बीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥२०॥
१.प्राणजातं म.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org