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एकविंशतितमं पर्व
शृण्वतोऽष्टमरामस्य संबन्धार्थं वदामि ते । वंशानुकीर्तनं किंचिन्महापुरुषसंभवम् ॥१॥ जिनेन्द्र दशमेऽतोते राजासीत् सुमुखश्रुतिः । कौशाम्ब्यामपरोऽत्रैव वाणिजो वीरकश्रुतिः ॥२॥ हृत्वा तदयितां राजा श्रित्वा कामं यथेप्सितम् । दत्वा दानं विरागाणां मृत्वा रुक्मगिरि ययौ ॥३॥ तत्रापि दक्षिणश्रेण्यां पुरे हरिपुरसंज्ञके । उत्पन्नौ दम्पती, क्रीडन् भोगभूमिमशिश्रियत् ॥४॥ दयिताविरहाङ्गारदग्धदेहस्तु वीरकः । तपसा देवता प्राप देवीनिवहसंकुलाम् ॥५॥ विदित्वावधिना देवो वैरिणं हरिसंभवम् । भरतेऽतिष्ठपद्यातं दुर्गतिं पापधीरतिः ॥६॥ यतोऽसौ हरितः क्षेत्रादानीतो भार्यया समम् । ततो हरिरिति ख्यातिं गतः सर्वत्र विष्टपे ॥७॥ नाम्ना महागिरिस्तस्य सुतो हिमगिरिस्ततः । ततो वसुगिरिर्जातो बभूवेन्द्रगिरिस्ततः ॥८॥ रत्नमालोऽथ संभूतो भूतदेवो महीधरः । इत्याद्याः शतशोऽतीता राजानो हरिवंशजाः ॥९॥ वंशे तत्र महासत्वः सुमित्र इति विश्रुतः । बभूव परमो राजा कुशाग्राख्ये महापुरे ॥१०॥ त्रिदशेन्द्रसमो भोगैः कान्त्या जितनिशाकरः। जितप्रभाकरो दीप्त्या प्रतापानतशात्रवः ॥११॥
अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन् ! अब आठवें बलभद्र श्रीरामका सम्बन्ध बतलानेके लिए कुछ महापुरुषोंसे उत्पन्न वंशोंका कथन करता है सो सुन ॥१॥ दशवें तीर्थंकर श्री शीतलनाथ भगवान्के मोक्ष चले जानेके बाद कौशाम्बी नगरीमें एक सुमुख नामका राजा हुआ। उसी समय उस नगरीमें एक वीरक नामका श्रेष्ठी रहता था। उसकी स्त्रीका नाम वनमाला था। राजा सुमुखने वनमालाका हरणकर उसके साथ इच्छानुसार कामोपभोग किया और अन्तमें वह मुनियोंके लिए दान देकर विजया पर्वतपर गया। वहाँ विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में एक हरिपुर नामका नगर था। उसमें वे दोनों दम्पती उत्पन्न हुए अर्थात् विद्याधर-विद्याधरी हुए। वहां क्रीड़ा करता हुआ राजा सुमुखका जीव विद्याधर भोगभूमि गया। उसके साथ उसकी स्त्री विद्याधरी भी थी। इधर स्त्रीके विरहरूपी अंगारसे जिसका शरीर जल रहा था ऐसा वीरक श्रेष्ठी तपके प्रभावसे अनेक देवियोंके समूहसे युक्त देवपदको प्राप्त हुआ ॥२-५॥ उसने अवधि ज्ञानसे जब यह जाना कि हमारा वैरी राजा सुमुख हरिक्षेत्रमें उत्पन्न हुआ है तो पाप बुद्धि में प्रेम करनेवाला वह देव उसे वहाँसे भरतक्षेत्रमें रख गया तथा उसकी दुर्दशा की ॥६॥ चूंकि वह अपनी भार्याके साथ हरिक्षेत्रसे हरकर लाया गया था इसलिए समस्त संसारमें वह हरि इस नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ ॥७॥ उसके महागिरि नामका पुत्र हुआ, उसके हिमगिरि, हिमगिरिके वसुगिरि, वसुगिरिके इन्द्रगिरि, इन्द्रगिरिके रत्नमाला, रत्नमालाके सम्भूत और सम्भूतके भूतदेव आदि सैकड़ों राजा क्रमशः उत्पन्न हुए। ये सब हरिवंशज कहलाये ।।८-९॥ आगे चलकर उसी हरिवंशमें कुशाग्न नामक महानगरमें सुमित्र नामक प्रसिद्ध उत्कृष्ट राजा हुआ ॥१०॥ यह राजा भोगोंसे इन्द्रके समान था, कान्तिसे चन्द्रमाको जीतनेवाला था, दीप्तिसे सूर्यको १. नीते म.। २. वणिजो म । ३. वीरकः श्रुतिः ख.। ४. भोगभूमिमशिश्रियत् क.। ५. क. पुस्तके एष श्लोको नास्ति, ज. पुस्तकेऽपि नास्ति किन्तु केनचिटिप्पणक; पुस्तकान्तरादुद्धृत्य योजितः । म. ब. पुस्तकयोः तृतीयश्लोकस्य 'मृत्वा रुक्मगिरिं ययौ' इति स्थाने 'पुरे हरिपुरसंज्ञके' इति पाठो विद्यते । तदनन्तरं चतुर्थश्लोकस्येत्थं क्रमो विद्यते-उत्पन्नौ दम्पती क्रीडां कृत्वा रुक्मगिरि ययौ। तत्रापि दक्षिणश्रेण्यां भोगभूमिमशिश्रियत् ॥४॥ अत्र तु मूले ख. पुस्तकीयः पाठः स्थापितः । ६. संकूलम् म. । ७. पापधीरिति म.।
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