Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 499
________________ एकविंशतितमं पर्व ४४२ क्रीडन्ति स्यन्ति यच्छन्ति शीलयन्ति वसन्ति च । लुच्यन्ति मान्ति सीदन्ति ऋध्यन्ति विचलन्ति च ॥ 'तुष्यन्त्यर्चन्ति वञ्चन्ति सान्त्वयन्ति विदन्ति च । मुह्यन्त्यर्वन्ति नृत्यन्ति स्निह्यन्ति विनयन्ति च॥६६॥ नुदन्त्युच्छन्ति कर्षन्ति भृजन्ति विनमन्ति च । दीव्यन्ति दान्ति शृण्वन्ति जुहृत्यङ्गन्ति जाग्रति ॥६७।। स्वपन्ति बिभ्यतीङ्गन्ति श्यन्ति द्यन्ति तुदन्ति च । प्रान्ति सुन्वन्ति सिन्वन्ति रुन्धन्ति विरुवन्ति च । ६८। सीव्यन्त्यटन्ति जीर्यन्ति पिबन्ति रचयन्ति च । वृणते परिमृदुनन्ति विस्तृणन्ति पृणन्ति च ॥६९॥ मीमांसन्ते जुगुप्सन्ते कामयन्ते तरन्ति च । चिकित्स्यन्त्यनुमन्यन्ते वारयन्ति गृणन्ति च ॥७॥ एवमादिक्रियाजालसंततव्याप्तमानसाः । शुभाशुभसमासक्ता व्यतिक्रामन्ति मानवाः ॥७१।। इति चित्रपटाकारचेष्टिताखिलमानवे । कालेऽवसर्पिणीनाम्नि प्रयाति विलयं शनैः ॥७२॥ जाते विंशतिसंख्याने वर्तमानजिनान्तरे । देवागमनसंयुक्ते विनीतायामरौ पुरि ॥७३॥ विजयो नाम राजेन्द्रो विजिताखिलशात्रवः । सौर्यप्रतापसंयुक्तः प्रजापालनपण्डितः ॥७४।। संभूतो हेमलिन्यां महादेव्यां सुतेजसि । सुरेन्द्रमन्युनामाभूत्सूनुस्तस्य महागुणः ॥७५॥ तस्य कीर्तिसमाख्यायां जायायां तनयद्वयम् । चन्द्रसूर्यसमच्छायं तातं गुणसमर्चितम् ॥७६॥ मायाचार दिखाते हैं, कभी किसीके द्रव्यादिका हरण करते हैं ॥६४॥ कभी क्रीड़ा करते हैं, कभी किसी वस्तुको नष्ट करते हैं, कभी किसीको कुछ देते हैं, कभी कहीं वास करते हैं, कभी किसीको लोंचते हैं, कभी किसीको नापते हैं, कभी दुःखी होते हैं, कभी क्रोध करते हैं, कभी विचलित होते हैं, ॥६५॥ कभी सन्तुष्ट होते हैं, कभी किसीकी पूजा करते हैं, कभी किसीको छलते हैं, कभी किसीको सान्त्वना देते हैं, कभी कुछ समझते हैं, कभी मोहित होते हैं, कभी रक्षा करते हैं, कभी नृत्य करते हैं, कभी स्नेह करते हैं, कभी विनय करते हैं, ॥६६॥ कभी किसीको प्रेरणा देते हैं, कभी दाने-दाने बीनकर पेट भरते हैं, कभी खेत जोतते हैं, कभी भाड़ दूंजते हैं, कभी नमस्कार करते हैं, कभी क्रीड़ा करते हैं, कभी लुनते हैं, कभी सुनते हैं, कभी होम करते हैं, कभी चलते हैं, कभी जागते हैं ॥६७॥ कभी सोते हैं, कभी डरते हैं, कभी नाना चेष्टा करते हैं, कभी नष्ट करते हैं, कभी किसीको खण्डित करते हैं, कभी किसीको पीड़ा पहुंचाते हैं, कभी पूर्ण करते हैं, कभी स्नान करते हैं, कभी बांधते हैं, कभी रोकते हैं, कभी चिल्लाते हैं, ॥६८|| कभी सोते हैं, कभी घूमते हैं, कभी जीणं होते हैं, कभी पीते हैं, कभी रचते हैं, कभी वरण करते हैं, कभी मसलते हैं, कभी फैलाते हैं, कभी तपंण करते हैं ॥६९|| कभी मीमांसा करते हैं, कभी घृणा करते हैं, कभी इच्छा करते हैं, कभी तरते हैं, कभी चिकित्सा करते हैं, कभी अनुमोदना करते हैं, कभी रोकते हैं और कभी निगलते हैं ।।७०॥ हे राजन् ! इत्यादि क्रियाओंके जालसे जिनके मन व्याप्त हो रहे थे तथा शुभ-अशुभ कार्योंमें लीन थे ऐसे अनेक मानव उस इक्ष्वाकुवंशमें क्रमसे हुए थे ।।७१।। इस प्रकार जिसमें समस्त मानवोंकी चेष्टाएँ चित्रपटके समान नाना प्रकारकी हैं ऐसा यह अवसर्पिणी नामका काल धीरे-धीरे समाप्त होता गया ॥७२॥ अथानन्तर जिसमें देवोंका आगमन जारी रहता था ऐसे बोसवें वर्तमान तीर्थकरका अन्तराल शुरू होनेपर अयोध्यानामक विशाल नगरीमें विजय नामका बड़ा राजा हुआ। उसने समस्त शत्रुओंको जीत लिया था। वह सूर्यके समान प्रतापसे संयुक्त था तथा प्रजाका पालन करनेमें निपुण था ।।७३-७४।। उसकी हेमचूला नामकी महातेजस्विनी पट्टरानी थी सो उसके सुरेन्द्रमन्य नामका महागुणवान् पुत्र उत्पन्न हुआ ॥७५॥ सुरेन्द्रमन्युकी कीर्तिसमा स्त्री हुई सो उसके चन्द्रमा और सूर्यके समान कान्तिको धारण करनेवाले दो पुत्र हुए। ये दोनों ही पुत्र गुणोंसे सुशोभित १. शीडन्ति म.। २. भान्ति म.। ३. स्तुत्यन्त्यर्चन्ति म.। ४. रुदन्ति च म.। ५. सीव्यन्त्यवन्ति म । ६. शतैः म.। ७. शौर्य -ख. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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