Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 500
________________ ४५० पद्मपुराणे वज्रबाहुस्तयोराद्यो द्वितीयश्च पुरंदरः । अन्वर्थनामयुक्तौ तौ रेमाते भुवने सुखम् ॥७७॥ इभवाहननामासीत्तस्मिन् काले नराधिपः । रम्ये नागपुरे तस्य नाम्ना चूडामणिः प्रिया ॥७८॥ तयोर्दुहितरं चावी ख्यातां नाम्ना मनोदयाम् । वज्रबाहुकुमारोऽसौ लेभे इलाध्यतमो नृणाम् ॥७९॥ 'तां कन्यां सोदरो नेतुमागादुदयसुन्दरः । साधं तेनोच्छितः श्रीमत्सितातपनिवारणः ॥४०॥ कन्यां तां रूपतः ख्यातां सकले वसुधातले । मानसेन वहन् भत्या प्रतस्थे श्वाशुरं पुरम् ॥४१॥ अथास्य व्रजतो दृष्टिर्वसन्तकुसुमाकुले । गिरौ वसन्तसंज्ञा निपपात मनोहरे ॥८२॥ यथा यथा समीपत्वं यस्य याति गिरेरसौ। तथा तथा परां लक्ष्मी पश्यन् हर्षमुपागमत् ॥८३॥ पुष्पधूलीविमिश्रेण वायुना स सुगन्धिना । समालिङ्गयन्त मित्रेण संप्राप्तेन चिरादिव ॥८४॥ पंस्कोकिलकलालापैर्जयशब्दमिवाकरोत् । वातकम्पितवृक्षाग्रो वज्रबाहोर्धराधर ॥८५॥ वीणाझङ्काररम्याणां भृङ्गाणां मदशालिनाम् । नादेन श्रवणौ तस्य मानसेन समं हृतौ ॥८६॥ चूतोऽयं कर्णिकारोऽयं लोध्रोऽयं कुसुमान्वितः । प्रियालोऽयं पलाशोऽयं ज्वलत्पावकभासुरः ॥८७॥ वजन्तीति क्रमेणास्य दृष्टिनिश्चलपक्ष्मिका । संदिग्धमानुषाकारे पपात मुनिपुङ्गवे ॥४८॥ स्थाणुः स्याच्छ्रमणोऽयं नु शैलकूटमिदं भवेत् । इति राज्ञो वितर्कोऽभूत् कायोत्सर्गस्थिते मुनौ ॥८९॥ 'नेदीयान्सं ततो मार्ग प्रयातस्यास्य निश्चयः । उदपादि महायोगिदेहविन्दनतस्परः ॥१०॥ उच्चावचशिलाजालविषमेऽवस्थितं स्थिरम् । दिवाकरकराश्लिष्टाम्लानवक्त्रसरोरुहम् ॥११॥ थे। उनमें से बड़े पुत्रका नाम वज्रबाहु और छोटे पुत्रका नाम पुरन्दर था। दोनों ही सार्थक नामको धारण करनेवाले थे और संसारमें सुखसे क्रीड़ा करते थे॥७६-७७।। उसी समय अत्यन्त मनोहर हस्तिनापुर नगरमें इभवाहन नामका राजा रहता था। उसकी स्त्रीका नाम चूड़ामणि था। उन दोनोंके मनोदया नामकी अत्यन्त सुन्दरी पुत्री थी सो उसे मनुष्योंमें अत्यन्त प्रशंसनीय वज्रबाहु कुमारने प्राप्त किया ||७८-७९।। कदाचित् कन्याका भाई उदयसुन्दर उस कन्याको लेनेके लिए वज्रबाहुके घर गया सो जिसपर अत्यन्त सुशोभित सफ़ेद छत्र लग रहा था ऐसा वज्रबाहु स्वयं भी उसके साथ चलने के लिए उद्यत हुआ ॥८०॥ वह कन्या अपने सौन्दर्यसे समस्त पृथ्वीमें प्रसिद्ध थी, उसे मनमें धारण करता हुआ वज्रबाहु बड़े वैभवके साथ श्वसुरके नगरकी ओर चला ॥८॥ अथानन्तर चलते-चलते उसको दृष्टि वसन्त ऋतुके फूलोंसे व्याप्त वसन्त नामक मनोहर पर्वतपर पड़ी ॥८२॥ वह जैसे-जैसे उस पर्वतके समीप आता जाता वैसे-वैसे ही उसकी परम शोभाको देखता हुआ हर्षको प्राप्त हो रहा था ।।८३।। फूलोंकी धूलिसे मिली सुगन्धित वाय उसका आलिंगन कर रही थी सो ऐसा जान पड़ता था मानो चिरकालके बाद प्राप्त हुआ मित्र ही आलिंगन कर रहा हो ।।८४॥ जहां वृक्षोंके अग्रभाग वायुसे कम्पित हो रहे थे ऐसा वह पर्वत पुंस्कोकिलाओंके शब्दोंके बहाने मानो वज्रबाहुका जय-जयकार ही कर रहा था ॥८५।। वीणाकी झंकारके समान मनोहर मदशाली भ्रमरोंके शब्दसे उसके श्रवण तथा मन साथ-ही-साथ हरे गये ।।८६॥ 'यह आम है, यह कनेर है, यह फूलोंसे सहित लोध्र है, यह प्रियाल है और यह जलती हुई अग्निके समान सुशोभित पलाश है' इस प्रकार क्रमसे चलती हुई उसकी निश्चल दृष्टि दूरीके कारण जिसमें मनुष्यके आकारका संशय हो रहा था ऐसे मुनिराजपर पड़ी ॥८७-८८।। कायोत्सर्गसे स्थित मुनिराजके विषयमें वज्रबाहुको वितर्क उत्पन्न हुआ कि क्या यह ठूठ है ? या साधु हैं, अथवा पर्वतका शिखर है ? ॥८९|| तदनन्तर जब अत्यन्त समीपवर्ती मार्गमें पहुंचा तब उसे निश्चय हुआ कि ये महायोगी-मुनिराज हैं ॥९०॥ वे मुनिराज ऊंची-नीची १. तं कन्या ख., ब. । तत्कन्या- म.। २. श्रीमान् सितातपनिवारणः म.। ३. संज्ञाके म.। ४. पर्वतः । ५. मन्दशालिनाम म.। ६. ततो नेदीयसं मागं म., ब., क., ख., ज.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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