Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 495
________________ एकविंशतितमं पर्व पद्मावतीति जायास्य पद्मनेत्रा महाद्युतिः । शुभलक्षणसंपूर्णा पूर्णसर्वमनोरथा ॥१२॥ सुप्तासौ भवने रम्ये रात्रौ तल्पे सुखावहे । अद्राक्षीत् पश्चिमे यामे स्वप्नान् षोडश पूजितान् ॥ १३ ॥ द्विरदं शास्कर सिंहमभिषेकं श्रियस्तथा । दामनी शीतगुं मानुं शषौ कुम्भं सरोऽब्जवत् ॥१४॥ सागरं सिंहसंयुक्तमासनं रत्नचित्रितम् । विमानं भवनं शुभ्रं रत्नराशि हुताशनम् ॥१५॥ ततो विस्मितचित्ता सा विबुद्धा बुद्धिशालिनी । कृत्वा यथोचितं याता विनीता भर्तुरन्तिकम् ॥ १६ ॥ कृतान्जलि पप्रच्छ स्वस्वप्नार्थ न्यायवेदिनी । मद्रासने सुखासीना स्फुरद्वदनपङ्कजा ॥१७॥ दयितोऽकथयद्यावत्तस्यै स्वप्नफलं शुभम् । अपसद् गगनात्तावद्वृष्टी रत्नप्रसूतिनी ॥१८॥ तिस्रः कोट्योर्धकोटी च वसुनोऽस्य दिने दिने । भवने मुदितो यक्षो ववर्षं सुरपाज्ञया ॥१९॥ मासान् पञ्चदशा खण्डं पतन्त्या वसुधारया । तया रत्नसुवर्णादिमयं तन्नगरं कृतम् ॥२०॥ तस्याः कमलवासिन्यो जिनमातुः प्रतिक्रियाम् । समस्तामादृता देव्यश्चक्रुः सपरिवारिकाः ॥२१॥ जातमात्रमथो सन्तं जिनेन्द्र क्षीरवारिणा । लोकपालैः समं शक्रो मेरावस्नपयच्छ्रिया ॥ २२॥ संपूज्य भक्तितः स्तुत्वा प्रणम्य च सुराधिपः । मातुरके पुनः प्रीत्या जिननाथमतिष्ठिपत् ॥ २३॥ आसीद् गर्भस्थिते यस्मिन् सुव्रता जननी यतः । विशेषेण ततः कीर्तिं गतोऽसौ सुव्रताख्यया ॥२४॥ अञ्जनाद्रिप्रकाशोऽपि स जिनो देहतेजसा । जिगाय तिग्मगुं पूर्ण निशाकरनिभाननः || २५ || पराजित कर रहा था और प्रतापसे समस्त शत्रुओंको नम्र करनेवाला था || ११|| उसकी पद्मावती नामकी स्त्री थी । पद्मावती बहुत ही सुन्दरी थी । उसके नेत्र कमलके समान थे, वह विशाल कान्तिकी धारक थी, शुभ लक्षणोंसे सम्पूर्णं थी तथा उसके सर्वं मनोरथ पूर्ण हुए थे || १२ || एक दिन वह रात्रि के समय सुन्दर महलमें सुखकारी शय्यापर सो रही थी कि उसने पिछले पहर में निम्नलिखित सोलह उत्तम स्वप्न देखे || १३ || गज १ वृषभ २ सिंह ३ लक्ष्मीका अभिषेक ४ दो मालाएँ ५ चन्द्रमा ६ सूर्यं ७ दो मीन ८ कलश ९ कमलकलित सरोवर १० समुद्र ११ रत्नोंसे चित्रविचित्र सिंहासन १२ विमान १३ उज्ज्वल भवन १४ रत्नराशि १५ और अग्नि १६ ।। १४-१५॥ ४४५ तदनन्तर जिसका चित्त आश्चयंसे चकित हो रहा था ऐसी बुद्धिमती रानी पद्मावती जागकर तथा प्रातःकाल सम्बन्धी यथायोग्य कार्य कर बड़ी नम्रतासे पतिके समीप गयी || १६ | वहाँ जाकर जिसका मुखकमल फूल रहा था ऐसी न्याय की जाननेवाली रानी भद्रासनपर सुखसे बैठी । तदनन्तर उसने हाथ जोड़कर पतिसे अपने स्वप्नोंका फल पूछा ||१७|| इधर पतिने जबतक उससे स्वप्नोंका फल कहा तबतक उधर आकाशसे रत्नोंकी वृष्टि पड़ने लगी || १८ || इन्द्रकी आज्ञासे प्रसन्न यक्ष प्रतिदिन इसके घरमें साढ़े तीन करोड़ रत्नोंकी वर्षा करता था || १९|| पन्द्रह मास तक लगातार पड़ती हुई धनवृष्टिसे वह समस्त नगर रत्न तथा सुवर्णादिमय हो गया ||२०|| पद्म, महापद्म आदि सरोवरोंके कमलोंमें रहनेवाली श्री-ह्री आदि देवियाँ अपने परिवार के साथ मिलकर जिनमाताकी सब प्रकारकी सेवा बड़े आदरभावसे करती थीं ॥ २१ ॥ अथानन्तर भगवान् का जन्म हुआ । सो जन्म होते ही इन्द्रने लोकपालोंके साथ बड़े वैभवसे सुमेरु पर्वत पर भगवान्का क्षीरसागरके जलसे अभिषेक किया ||२२|| अभिषेकके बाद इन्द्रने भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रदेव की पूजा की, स्तुति की, प्रणाम किया और तदनन्तर प्रेमपूर्वक माताकी गोदमें लाकर विराजमान कर दिया ||२३|| जब भगवान् गर्भमें स्थित थे तभीसे उनकी माता विशेषकर सुव्रता अर्थात् उत्तम व्रतोंको धारण करनेवाली हो गयी थीं इसलिए वे मुनिसुव्रत नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुए ||२४|| जिनका मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान था ऐसे सुव्रतनाथ भगवान् यद्यपि १. भुवने म. । २. सूर्यम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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