Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 487
________________ विशतितमं पर्व ४३७ सप्तवारान् कृताक्षत्रारिपूर्णा किल भूरिति । चक्रे त्रिसप्तवारान् यः क्षितिं निष्कण्ठसूत्रिकाम् ॥ १७५ ॥ अत्युप्रशासनात्तस्माद् विभा प्राप्य महामयम् । कुलेषु रजकादीनां क्षत्रिया इव लिल्यिरे ॥ १७६ ॥ अरमल्ल्यन्तरे चक्री भोगादविरतात्मकः । कालधर्मेण संयुक्तः सप्तमीं क्षितिमाश्रितः ॥ १७७॥ नगर्यां वीतशोकायां चिन्ताह्नः पार्थिवोऽभवत् । भूत्वा सुप्रमशिष्योऽसौ ब्रह्माह्वं कल्पमाश्रितेः ॥ १७८॥ च्युतो नागपुरे पद्मरथस्य धरणीपतेः । मयूर्यां तनयो जातो महापद्मः प्रकीर्तितः ॥ १७९॥ अष्टौ दुहितरस्तस्य रूपातिशयगर्विताः । नेच्छन्ति भुवि मर्तारं हृता विद्याधरैरिमाः ॥ १८० ॥ उपलभ्य समानीता निर्वेदिन्यः प्रवव्रजुः । समाराधितकल्याणा देवलोकं समाश्रिताः ॥१८१॥ तेऽध्यष्टौ तद्वियोगेन प्रव्रज्यां व्योमचारिणः । चक्रुर्विचित्रसंसारदर्शनत्रासमागताः ॥ १८२ ॥ हेतुना तेन चक्रेशः प्रतिबुद्धो महागुणः । सुते न्यस्य श्रियं पद्मे निष्क्रान्तो विष्णुना समम् ॥ १८३॥ महापद्मस्तपः कृत्वा परं संप्राप्त केवलः । लोकप्राग्मारमारुक्षदरमल्लिजिनान्तरे ॥ १८४ ॥ महेन्द्रदत्तनामासीत् पुरे विजयनामनि । कृत्वा नन्दन शिष्यत्वं माहेन्द्रं कल्पमुद्ययौ ॥१८५॥ काम्पिल्यनगरे च्युत्वा वप्रायां हरिकेतुतः । हरिषेण इति ख्यातो जज्ञे चक्राङ्कितेशतः ॥ १८६॥ सकृत्वा धरणीं सर्वा निजां चैत्यविभूषणाम् । तीर्थे सुव्रतनाथस्य सिद्धानां पदमाश्रितः ॥ १८७॥ चक्र द्वारा परशुरामको मारा था । परशुरामने पृथ्वीको सात बार क्षत्रियोंसे रहित किया था इसलिए उसके बदले इसने इक्कीस बार पृथ्वीको ब्राह्मणरहित किया था ||१७३ - १७५ ।। जिस प्रकार पहले परशुरामके भयसे क्षत्रिय धोबी आदिके कुलोंमें छिपते फिरते थे उसी प्रकार अत्यन्त कठिन शासन के धारक सुभूम चक्रवर्तीसे ब्राह्मण लोग भयभीत होकर धोबी आदिके कुलोंमें छिपते फिरते थे || १७६ ॥ | यह सुभूम चक्रवर्ती अरनाथ और मल्लिनाथके बीच में हुआ था तथा भोगों से विरक्त न होने के कारण मरकर सातवें नरक गया था ||१७७ || अब नौवें चक्रवर्तीका वर्णन करते हैं वीतशोका नगरीमें चिन्त नामका राजा था । वह सुप्रभमुनिका शिष्य होकर ब्रह्मस्वर्ग गया || १७८ || वहाँसे च्युत होकर हस्तिनागपुर में राजा पद्मरथ और रानी मयूरीके महापद्म नामका नवाँ चक्रवर्ती हुआ || १७२ ॥ इसकी आठ पुत्रियाँ थीं जो सौन्दयंके अतिशय से गर्वित थीं तथा पृथ्वीपर किसी भर्ताकी इच्छा नहीं करती थीं। एक समय विद्याधर इन्हें हरकर ले गये । पता चलाकर चक्रवर्तीने उन्हें वापस बुलाया परन्तु विरक्त होकर उन्होंने दीक्षा धारण कर ली तथा आत्म-कल्याण कर स्वर्गलोक प्राप्त किया || १८०-१८१ ।। जो आठ विद्याधर उन्हें हरकर ले गये थे वे भी उनके वियोग तथा संसारकी विचित्र दशाके देखनेसे भयभीत हो दीक्षित हो गये || १८२ ॥ इस घटना से महागुणों का धारक चक्रवर्ती प्रतिबोधको प्राप्त हो गया तथा पद्म नामक पुत्रके लिए राज्य दे विष्णु नामक पुत्रके साथ घरसे निकल गया अर्थात् दीक्षित हो गया || १८३ || इस प्रकार महापद्म मुनिने परम तप कर केवलज्ञान प्राप्त किया तथा अन्तमें लोकके शिखर में जा पहुँचा । यह चक्रवर्ती अरनाथ और मल्लिनाथ के बीच में हुआ था || १८४|| अब दशवें चक्रवर्तीका वर्णन करते हैं विजय नामक नगर में महेन्द्रदत्त नामका राजा रहता था। वह नन्दन मुनिका शिष्य बनकर महेन्द्र स्वर्ग में उत्पन्न हुआ || १८५ || वहाँसे च्युत होकर काम्पिल्यनगर में राजा हरिकेतु और रानी वप्राके हरिषेण नामका दशवाँ प्रसिद्ध चक्रवर्ती हुआ || १८६ | उसने अपने राज्यकी समस्त पृथिवीको जिन-प्रतिमाओंसे अलंकृत किया था तथा मुनिसुव्रतनाथ भगवान् के तीर्थं में सिद्धपद प्राप्त किया था ||१८७ || १. -माश्रिता म । २. महेन्द्रं म । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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