Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 489
________________ विशतितम पर्व कल्पप्रासादसंकाशं रथमारुह्य यजनाः । व्रजन्ति पुण्यशैलेन्द्रात्' स्रुतोऽसौ स्वादुनिर्भरः ॥२०॥ स्फुटिताभ्यां पदाघ्रिभ्यां मलग्रस्तपटञ्चरैः । भ्रम्यते पुरुषैः पापविषवृक्षस्य तत्फलम् ।।२०२।। अन्नं यदमृतप्राय हेमपात्रेषु भुज्यते । स प्रमावो मुनिश्रेष्ठेरुक्तो धार्मरसायनः ॥२०॥ देवाधिपतिता चक्रचुम्बिता यच्च राजता । लभ्यते भव्यशार्दूलैस्तदहिंसालताफलम् ।।२०४॥ रामकेशवयोर्लक्ष्मीलभ्यते यच्च पुङ्गवः । तद्धर्मफलमु प्ये तत्कीर्तनमथाधुना ।।२०५।। हास्तिनं नगरं रम्यं साकेता केतुभूषिता । श्रावस्ती वरविस्तीर्णा कौशाम्बी मासिताम्बरा ॥२०६।। पोदनं शैलनगरं तया सिंहपुरं पुरम् । कौशाम्बी हास्तिनं चेति क्रमेण परिकीर्तिता ।।२०७।। सर्वदविणसंपन्ना भयसंपर्कवर्जिता । नगर्यो वासुदेवानामिमाः पूर्वत्र जन्मनि ॥२०८।। विश्वनन्दी महातेजास्ततः पर्वतकामिधः । धनमित्रस्ततो ज्ञेयस्तृतीयश्चक्रधारिणाम् ॥२०९।। ततः सागरदत्ताख्यः क्षुब्धसागरनिस्वनः । विकटः प्रियमित्रश्च तथा मानसचेष्टितः ॥२१०॥ पुनर्वसुश्च विज्ञातो गङ्गदेवश्व कीर्तितः । उक्तान्यमूनि नामानि कृष्णानां पूर्वजन्मनि ॥२११॥ नैविकीयातनं युद्धविजयाप्रमदाहृतिः । उद्यानारण्यरमणं वनक्रीडाभिकाङ्क्षणम् ॥२१२॥ अत्यन्त विषयासङ्गो विप्रयोगस्तूनपात् । दौर्भाग्यं प्रेत्य हेतुभ्य एतेभ्यो हरयोऽभवन् ॥२१३॥ विरूपा दुर्भगाः सन्तः सनिदानतपोधनाः । तत्वविज्ञाननिर्मुकाः संभवन्ति बलानुजाः ॥२१४॥ सनिदानं तपस्तस्माद्वर्जनीयं प्रयत्नतः । तद्धि पश्चान्महाघोरदुःखदानसुशिक्षितम् ॥२१५॥ बीचमें चलते हैं वह पुण्यरूपी राजाकी मनोहर चेष्टा है ॥२००॥ जो मनुष्य स्वर्गके भवनके समान सुन्दर रथपर सवार हो गमन करते हैं वह उनके पुण्यरूपी हिमालयसे भरा हुआ स्वादिष्ट झरना है ॥२०१॥ जो पुरुष मलिन वस्त्र पहनकर फटे हुए पैरोंसे पैदल ही भ्रमण करते हैं वह पापरूपी विषवृक्षका फल है ।।२०२॥ जो मनुष्य सुवर्णमया पात्रोंमें अमृतके समान मधुर भोजन करते हैं उसे श्रेष्ठ.मुनियोंने धर्मरूपी रसायनका प्रभाव बतलाया है ॥२०३।। जो उत्तम भव्य जीव इन्द्रपद, चक्रवर्तीका पद तथा सामान्य राजाका पद प्राप्त करते हैं वह अहिंसारूपी लताका फल है ।।२०४॥ तथा उत्तम मनुष्य जो बलभद्र और नारायणकी लक्ष्मी प्राप्त करते हैं वह भी धर्मका ही फल है। हे श्रेणिक ! अब मैं उन्हीं बलभद्र और नारायणोंका कथन करूंगा ।।२०५।। प्रथम ही भरत क्षेत्रके नौ नारायणकी पूर्वभव सम्बन्धी नगरियोंके नाम सुनो-१ मनोहर हस्तिनापुर, २ पताकाओंसे सुशोभित अयोध्या, ३ अत्यन्त विस्तृत श्रावस्ती, ४ निर्मल आकाशसे सुशोभित कौशाम्बी, ५ पोदनपुर, ६ शैलनगर, ७ सिंहपुर, ८ कौशाम्बी और, ९ हस्तिनापुर ये क्रमसे नौ नगरियाँ कही गयी हैं। ये सभी नगरियाँ सर्वप्रकारके धन-धान्यसे परिपूर्ण थीं, भयके सम्पर्कसे रहित थीं, तथा वासुदेव अर्थात् नारायणोंके पूर्वजन्म सम्बन्धी निवाससे सुशोभित थीं ॥२०६-२०८|| अब इन वासुदेवोंके पूर्वभवके नाम सुनो-१ महाप्रतापी विश्वनन्दी, २ पर्वत, ३ धनमित्र, ४ क्षोभको प्राप्त हुए सागरके समान शब्द करनेवाला सागरदत्त, ५ विकट, ६ प्रियमित्र, ७ मानसचेष्टित, ८ पुनर्वसु और, ९ गंगदेव ये नारायणोंके पूर्व जन्मके नाम कहे ॥२०९-२११।। ये सभी पूर्वभवमें अत्यन्त विरूप तथा दुर्भाग्यसे युक्त थे। मूलधनका अपहरण १, युद्ध में हार २, स्त्रीका अपहरण ३, उद्यान तथा वनमें क्रीड़ा करना ४, वन क्रीड़ाकी आकाङ्क्षा ५, विषयोंमें अत्यन्त आसक्ति ६, इष्टजनवियोग ७, अग्निबाधा ८ और दौर्भाग्य ९ क्रमशः इन निमित्तोंको पाकर ये मुनि हो गये थे। निदान अर्थात् आगामी भोगोंकी लालसा रखकर तपश्चरण करते थे तथा तत्त्वज्ञानसे रहित थे । इसी अवस्थामें मरकर ये नारायण हुए थे। ये सभी नारायण बलभद्रके छोटे भाई होते हैं ।।२१२-२१४|| हे श्रेणिक ! निदान१. शैलेन्द्राच्छ्रतोऽसौ म.। २. यदमृतं प्रायं म. । ३. राजिता म. । ४. नारायणानाम् । ५. युद्ध विजया म. । ६. भरणं म.। ७. वनक्रीडाभिकाक्षणः म.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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