Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 488
________________ ४३८ पद्मपुराणे अमिताङ्कोऽभवद् राजा पुरे राजपुराभिधे । सुधर्ममित्रशिष्यत्वं कृत्वा ब्रह्मालयं ययौ ॥१८॥ ततश्च्युतो यशोवत्यां जातस्तत्रैव वैजयिः । जयसेन इति ख्यातश्चक्रचुम्बितशासनः ॥१८९॥ परित्यज्य महाराज्यं दीक्षा दैगम्बरीमितः । रत्नत्रितयमाराध्य सैद्धं पदमशिश्रियत् ॥१९०॥ स्वतन्त्रलिङ्गसंज्ञस्य संभूतः प्राप्य शिष्यताम् ! काश्यां कमलगुल्माख्यं विमानं समुपाश्रितः ॥१९१॥ च्युतो ब्रह्मरथस्याभूत् पुरे काम्पिल्यनामनि । चूलाह्रासंभवः पुत्रो ब्रह्मदत्तः प्रकीर्तितः ॥१९२॥ चक्रचिह्नामसौ भुक्त्वा श्रियं विरतिवर्जितः । सप्तमी क्षितिमश्लिक्षन्नेमिपार्श्वजिनान्तरे ॥१९३।। एते षट्खण्डमूनाथाः कीर्तिता मगधाधिप । गतिर्न शक्यते येषां रोर्बु देवासुरैरपि ॥१९॥ प्रत्यक्षमक्षमुक्तं च फलमेतच्छुभाशुभम् । श्रुत्वानुभूय दृष्ट्वा च युक्तं न क्रियते कथम् ॥१९५॥ न पाथेयमपूपादि गृहीत्वा कश्चिदृच्छति । लोकान्तरं न चायाति किन्तु तत्सुकृतेतरम् ॥१९६।। कैलासकूटकल्पेषु वरस्त्रीपूर्णकुक्षिषु । यद्वसन्ति स्वगारेषु तत्फलं पुण्यवृक्षजम् ।।१९७॥ शीतोष्णवातयुक्तेषु कुगृहेषु वसन्ति यत् । दारिद्रयपङ्कनिमग्नास्तदधर्मतरोः फलम् ।।१९८॥ विन्ध्यकूटसमाकारारणेन्द्रव्रजन्ति यत् । नरेन्द्राश्चामरोद्भूताः पुण्यशालेरिदं फलम् ॥१९९।। तुरङ्गैर्यदलं स्वङ्गैर्गम्यते चलचामरैः । पादातमध्यगैः पुण्यनृपतेस्तद्विचेष्टितम् ॥२०॥ अब ग्यारहवें चक्रवर्तीका वर्णन करते हैं राजपुर नामक नगरमें एक अमितांक नामका राजा रहता था। वह सूधर्म मित्र नामक मुनिराजका शिष्य होकर ब्रह्म स्वर्ग गया ।।१८८॥ वहाँसे च्युत होकर उसो काम्पिल्यनगरमें राजा विजयको यशोवती रानीसे जयसेन नामका ग्यारहवाँ चक्रवर्ती हुआ ॥१८९|| वह अन्तमें महाराज्यका परित्याग कर पैगम्बरी दीक्षाको धारण कर रत्नत्रयकी आराधना करता हुआ सिद्धपदको प्राप्त हुआ ॥१९०। यह मुनिसुव्रतनाथ और नमिनाथके अन्तरालमें हुआ था। अब बारहवें चक्रवर्तीका वर्णन करते हैं काशी नगरीमें सम्भूत नामका राजा रहता था। वह स्वतन्त्रलिंग नामक मुनिराजका शिष्य हो कमलगुल्म नामक विमानमें उत्पन्न हुआ ॥१९१॥ वहाँसे च्युत होकर काम्पिल्यनगरमें राजा ब्रह्मरथ और रानी चूलाके ब्रह्मदत्त नामका बारहवां चक्रवर्ती हुआ ॥१९२॥ यह चक्रवर्ती लक्ष्मीका उपभोगकर उससे विरत नहीं हुआ और उसी अविरत अवस्थामें मरकर सातवें नरक गया। यह नेमिनाथ और पार्श्वनाथ तीर्थकरके बीच में हुआ था।॥१९३॥ गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे मगधराज ! इस प्रकार मैंने छह खण्डके अधिपति-चक्रवतियोंका वर्णन किया। ये इतने प्रतापी थे कि इनकी गतिको देव तथा असुर भी नहीं रोक सकते थे ॥१९४|| यह मैंने पुण्यपापका फल प्रत्यक्ष कहा है, उसे सुनकर, अनुभव कर तथा देखकर लोग योग्य कार्य क्यों नहीं करते हैं ? ||१९५।। जिस प्रकार कोई पथिक अपूप आदि पाथेय ( मार्ग हितकारी भोजन ) लिये बिना ग्रामान्तरको नहीं जाता है उसी प्रकार यह जीव भी पुण्य-पापरूपी पाथेयके बिना लोकान्तरको नहीं जाता है ॥१९६।। उत्तमोत्तम स्त्रियोंसे भरे तथा कैलासके समान ऊंचे उत्तम महलोंमें जो मनुष्य निवास करते हैं वह पुण्यरूपी वृक्षका ही फल है ॥१९७|| और जो दरिद्रतारूपी कीचड़में निमग्न हो सरदी, गरमी तथा हवाकी बाधासे युक्त खोटे घरोंमें रहते हैं वह पापरूपी वृक्षका फल है ।।१९८॥ जिनपर चमर दुल रहे हैं ऐसे राजा महाराजा जो विन्ध्याचलके शिखरके समान ऊँचे-ऊंचे हाथियोंपर बैठकर गमन करते हैं वह पुण्यरूपी शालि (धान ) का फल है ।।१९९।। जिनके दोनों ओर चमर हिल रहे हैं ऐसे सुन्दर शरीरके धारक घोड़ोंपर बैठकर जो पैदल सेनाओंके १. असिताहः म. । २. चमारोद्भूता म.। ३. पादान्त-म. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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