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विंशतितम पर्व
४३१ कुशास्त्रमुक्तहुंकारैः कर्मम्लेच्छैर्मदोद्धतैः । अनर्थजनितोत्साहैमर्मोहसंतमसावृतैः ॥१०॥ छेत्स्यन्ते सततोद्युक्तर्मन्दकालानुभावतः । हिंसाशास्त्र कुठारेण भव्येतर जनाधिपाः ॥१०१॥ आदावरत्नयः सप्त जनानां दुःषमे स्मृताः । प्रमाणं क्रमतो हानिस्ततस्तेषां भविष्यति ॥१०२॥ द्विहस्तसंमिता मर्त्या विंशत्यब्दायुषस्ततः । भविष्यन्ति परे हस्तमात्रोत्सेधाः सुदुःषमे ॥१०३॥ आयुः षोडशवर्षाणि तेषां गदितमुत्तमम् । वृत्या सरीसृपाणां ते जीविष्यन्त्यन्तदु:खिताः ॥१०॥ ते विरूपसमस्ताङ्गा नित्यं पापक्रियारताः । तिर्यञ्च इव मोहार्ता भविष्यन्ति रुजार्दिताः ॥१०५॥ न व्यवस्था न संबन्धा नेश्वरा न च सेवकाः । न धनं न गृहं नैव सुखमेकान्तदुःषमे ॥१०६॥ कामार्थधर्म संभारहेतुभिः परिचेष्टितैः । शून्याः प्रजा भविष्यन्ति पापपिण्डचिता इव ॥१०७॥ कृष्णपक्षे क्षयं याति यथा शुक्ले च वर्धते । इन्दुस्तथैतयोरायुरादीनां हानिवर्धने ॥१०॥ उत्सवादिप्रवृत्तीनां रात्रिवासरयोर्यथा। हानिवृद्धी च विज्ञेये कालयोस्तद्वदेतयोः ॥१०॥ येनावसर्पिणीकाले क्रमेणोदाहृतः क्षयः । उत्सर्पिण्यामनेनैव परिवृद्धिः प्रकीर्तिता ॥११०॥ जिनानामन्तरं प्रोक्तमुत्सेधं शृण्वतः परम् । क्रमतः कीर्तयिष्यामि राजन्नवहितो भव ॥१११॥ शतानि पञ्च चापानां प्रथमस्य महात्मनः । उत्सेधो जिननाथस्य वपुषः परिकीर्तितः ॥११२॥
रात-दिन लगे रहेंगे। उस समयके लोग होंगे तो दुर्गतिमें जानेवाले पर अपने आपको ऐसा समझेंगे जैसे सिद्ध हुए जा रहे हों अर्थात् मोक्ष प्राप्त करनेवाले हों ॥९८-९९।। जो मिथ्या शास्त्रोंका अध्ययन कर अहंकारवश हुंकार छोड़ रहे हैं, जो कार्य करने में म्लेच्छोंके समान हैं, सदा मदसे उद्धत रहते हैं, निरर्थक कार्योंमें जिनका उत्साह उत्पन्न होता है, जो मोहरूपी अन्धकारसे सदा आवृत रहते हैं और सदा दाव-पेंच लगाने में ही तत्पर रहते हैं, ऐसे ब्राह्मणादिकके द्वारा उस समयके अभव्य जीवरूपी वृक्ष, हिंसाशास्त्र रूपी कुठारसे सदा छेदे जावेंगे। यह सब हीन कालका प्रभाव ही समझना चाहिए ॥१००-१०१॥ दुःषम नाम पंचम कालके आदिमें मनुष्योंकी ऊँचाई सात हाथ प्रमाण होगी फिर क्रमसे हानि होती जावेगी। इस प्रकार क्रमसे हानि होतेहोते अन्तमें दो हाथ ऊँचे रह जावेंगे। बीस वर्षकी उनकी आयु रह जावेगी। उसके बाद जब छठा काल आवेगा तब एक हाथ ऊँचा शरीर और सोलह वर्षकी आयु रह जावेगी। उस समयके मनुष्य सरीसृपोंके समान एक दूसरेको मारकर बड़े कष्टसे जीवन बितावेंगे ||१०२-१०४॥ उनके समस्त अंग विरूप होंगे, वे निरन्तर पाप-क्रियामें लीन रहेंगे, तिर्यंचोंके समान मोहसे दुःखी तथा रोगसे पीड़ित होंगे ॥१०५|| छठे काल में न कोई व्यवस्था रहेगी, न कोई सम्बन्ध रहेंगे, न राजा रहेंगे, न सेवक रहेंगे। लोगोंके पास न धन रहेगा, न घर रहेगा, और न सुख ही रहेगा ॥१०६॥ उस समयकी प्रजा धर्म, अर्थ, काम सम्बन्धी चेष्टाओंसे सदा शून्य रहेगी और ऐसी दिखेगी मानो पापके समूहसे व्याप्त ही हो ॥१०७।। जिस प्रकार कृष्ण पक्षमें चन्द्रमा ह्रासको प्राप्त होता है और शुक्ल पक्षमें वृद्धिको प्राप्त होता है उसी प्रकार अवसर्पिणी कालमें लोगोंकी आयु आदिमें ह्रास होने लगता है तथा उत्सपिणीकालमें वृद्धि होने लगती है ।।१०८।। अथवा जिस प्रकार रात्रिमें उत्सवादि अच्छे-अच्छे कार्योंकी प्रवृत्तिका ह्रास होने लगता है और दिनमें वृद्धि होने लगती है उसी प्रकार अवसपिणी और उत्सपिणीकालका हाल जानना चाहिए ॥१०९॥ अवसपिणी काल में जिस क्रमसे क्षयका उल्लेख किया है उत्सर्पिणीकालमें उसी क्रमसे वृद्धिका उल्लेख जानना चाहिए ॥११०॥ गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन् ! मैंने चौबीस तीर्थंकरोंका अन्तर तो कहा । अब क्रमसे उनकी ऊँचाई कहूँगा सो सावधान होकर सुन ॥१११॥
पहले ऋषभदेव भगवानके शरीरकी ऊंचाई पाँच सौ धनुष कही गयी है ।।११२।। उसके १. मन्दा: म., ब.। २. जिनाध्रिपाः म., ज. । ३. धर्मसंगभार-म.। ४. शृणु+अतः ।
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