Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 480
________________ ४३० पद्मपुराणे ५ ॥९ ॥ चतुःपञ्चाशदाख्यातं समा लक्षास्तु तत्परम् । षड्लक्षा उत्तरं तस्मात्ततः पञ्च प्रकाशितम् ॥८९॥ सहस्राणि व्यशीतिस्तु सार्धाष्टमशतं परम् । शतान्यर्द्धतृतीयानि समाना कीर्तितं ततः ॥१०॥ वर्द्धमानजिनेन्द्रस्य धर्मः संस्पृष्टदुःषमः । निवृत्ते तु महावीरे धर्मचक्रे महेश्वरे । सुरेन्द्रमुकुटच्छायापयोधौतक्रमद्वये ॥११॥ देवागमननिर्मुक्ते कालेऽतिशयवर्जिते । प्रनष्टकेवलोत्पादे हलचक्रधरोज्झिते ॥१२॥ भवद्विधमहाराजगुणसंघातरिक्तके । भविष्यन्ति प्रजा दुष्टा वञ्चनोद्यतमानसाः ॥१३॥ निश्लीला निव्रताः प्रायः क्लेशब्याधिसमन्विताः। मिथ्यादृशो महाघोरा भविष्यन्त्यसुधारिणः ॥९॥ अतिवृष्टिरवृष्टिश्च विषमावृष्टिरीतयः । विविधाश्च भविष्यन्ति दुस्सहाः प्राणधारिणाम् ॥१५॥ मोहकादम्बरीमत्ता रागद्वेषात्ममूर्तयः । नर्ति तभ्रकराः पापा मुहुर्गर्वस्मिता नराः ॥१६॥ कुवाक्यमुखराः करा धनलाभपरायणाः । विचरिष्यन्ति खद्योता रात्राविव महीतले ॥९॥ गोदण्डपथतुल्येषु मूढास्ते पतिताः स्वयम् । कुधर्मेषु जनानन्यान्पातयिष्यन्ति दुर्जनाः ॥१८॥ अपकारे समासक्ताः परस्य स्वस्य चानिशम् । ज्ञास्यन्ति सिद्धमात्मानं नरा दुर्गतिगामिनः ॥१९॥ पर तेरहवें विमलनाथ हुए, उनके बाद नौ सागर बीतने पर चौदहवें अनन्तनाथ हुए, उनके बाद चार सागर बीतनेपर पन्द्रहवें श्रीधर्मनाथ हुए, उनके बाद पौन पल्य कम तीन सागर बीतनेपर सोलहवें शान्तिनाथ हुए, उनके बाद आधा पल्य बीतनेपर सत्रहवें कुन्थुनाथ हुए, उनके बाद हजार वर्ष कम पावपल्य बीतनेपर अठारहवें अरनाथ हुए, उनके बाद पैंसठ लाख चौरासी हजार वर्ष कम हजार करोड़ सागर बीतनेपर उन्नीसवें मल्लिनाथ हुए, उनके बाद चौवन लाख वर्ष बोतनेपर बीसवें मुनिसुव्रतनाथ हुए, उनके बाद छह लाख वर्ष बीतनेपर इक्कीसवें नमिनाथ हुए, उनके बाद पाँच लाख वर्ष बीतनेपर बाईसवें नेमिनाथ हुए, उनके बाद पौने चौरासी हजार वर्ष बीतनेपर तेईसवें श्रीपार्श्वनाथ हुए और उनके बाद ढाई सौ वर्ष बीतनेपर चौबीसवें श्री वर्धमानस्वामी हए हैं। भगवान वर्धमान स्वामीका धर्म ही इस समय पंचम कालमें व्याप्त हो इन्द्रोंके मुकुटोंकी कान्तिरूपी जलसे जिनके दोनों चरण धुल रहे हैं, जो धर्म-चक्रका प्रवर्तन करते हैं तथा महान् ऐश्वर्यके धारक थे, ऐसे महावीर स्वामीके मोक्ष चले जानेके बाद जो पंचम काल आवेगा, उसमें देवोंका आगमन बन्द हो जायेगा, सब अतिशय नष्ट हो जावेंगे, केवलज्ञानकी उत्पत्ति समाप्त हो जावेगी। बलभद्र, नारायण तथा चक्रवर्तियोंका उत्पन्न होना भी बन्द हो जायेगा। और आप जैसे महाराजाओंके योग्य गुणोंसे समय शून्य हो जायेगा। तब प्रजा अत्यन्त दुष्ट हो जावेगी, एक दूसरेको धोखा देने में ही उसका मन निरन्तर उद्यत रहेगा। उस समयके लोग निःशील तथा निर्वत होंगे, नाना प्रकारके क्लेश और व्याधियोंसे सहित होंगे, मिथ्यादृष्टि तथा अत्यन्त भयंकर होंगे ॥८४-९४।। कहीं अतिवृष्टि होगी, कहीं अवृष्टि होगी और कहीं विषम वृष्टि होगी। साथ ही नाना प्रकारकी दुःसह रीतियाँ प्राणियोंको दुःसह दुःख पहुँचावेंगी ॥९५|| उस समयके लोग मोहरूपी मदिराके नशामें चूर रहेंगे, उनके शरीर राग-द्वेषके पिण्डके समान जान पड़ेंगे, उनकी भौंहें तथा हाथ सदा चलते रहेंगे, वे अत्यन्त पापी होंगे, बार-बार अहंकारसे मुसकराते रहेंगे, खोटे वचन बोलने में तत्पर होंगे, निर्दय होंगे, धनसंचय करने में ही निरन्तर लगे रहेंगे और पृथ्वीपर ऐसे विचरेंगे जैसे कि रात्रिमें जुगुनू अथवा पटवीजना विचरते हैं अर्थात् अल्प प्रभावके धारक होंगे ॥९६-९७|वे स्वयं मूर्ख होंगे और गोदण्ड पथके समान जो नाना कुधर्म हैं उनमें स्वयं पड़कर दूसरे लोगोंको भी ले जायेंगे। दुर्जय प्रकृतिके होंगे, दूसरेके तथा अपने अपकारमें १. ख. पुस्तके ९१ तमः श्लोकः षड्भिः पादैरत्र समाप्यते । ज. पुस्तके मूलतः म. पुस्तकवत् पाठोऽस्ति किंतु पश्चात्केनापि टिप्पणक; उञ्झितश्लोकचिह्न दत्त्वा ८५ तमः श्लोकः मूलेन योचितः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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