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पद्मपुराणे
अपक्वशालिसंकाशः पाश्वो नागाधिपस्तुतः । पद्मगर्भसमच्छायः प्रश्नप्रभजिनोत्तमः ।।६४॥ किंशुकोत्करसंकाशो वासुपूज्यः प्रकीर्तितः । नीलाअनगिरिच्छायो मुनिसुव्रततीर्थकृत् ॥६५॥ मयूरकण्ठसंकाशो जिनो यादवपुङ्गवः । सुतप्तकाञ्चनच्छायाः शेषा जिनवराः स्मृताः ॥६६॥ वासुपूज्यो महावीरो मल्लिः पाश्वो यदूत्तमः । कुमारा निर्गता गेहात्पृथिवीपतयोऽपरे ।।६७।। एते सुरासुराधीशः प्रणताः पूजिताः स्तुताः । अमिषेकं परं प्राप्तानगपार्थिवमूर्धनि ॥६॥ सर्वकल्याणसंप्राप्तिकारणीभूतसेवनाः । जिनेन्द्राः पान्तु वो नित्यं त्रैलोक्यपरमाद्भुताः ।।६९।। आयुःप्रमाणबोधार्थ गणेश मम सांप्रतम् । निवेदय परं तत्त्वं मनःपावनकारणम् ॥७॥ यश्च रामोऽन्तरे यस्य जिनेन्द्रस्योदपद्यत । तत्सर्व ज्ञातुमिच्छामि प्रतीक्ष्य त्वत्प्रसादतः ॥७१॥ इत्युक्तो गणभृत्सौम्यः श्रेणिकेन महादरात् । निवेदयांबभूवासौ क्षीरोदामलमानसः॥७२॥ संख्याया गोचरं योऽर्थो व्यतिक्रम्य व्यवस्थितः । बुद्धौ कल्पितदृष्टान्तः कथितोऽसौ महात्मभिः ॥७३॥ योजनप्रतिमं व्योम सर्वतो मित्तिवेष्टितम् । अवेः प्रजातमात्रस्य रोमाः परिपूरितम् ।।७४॥ द्रव्यपल्यमिदं गाढमाहत्य कठिनीकृतम् । कथ्यते कल्पितं कस्य व्यापारोऽयं मुधा भवेत् ॥७५॥
तत्र वर्षशतेऽतीते ह्येकैकस्मिन्समद्धते । क्षीयते येन कालेन कालपल्यं तदुच्यते ॥७६।। धारक थे । सुपार्श्व जिनेन्द्र प्रियंगुके फूलके समान हरित वर्णके थे। पार्श्वनाथ भी कच्ची धान्यके समान हरित वर्णके थे। धरणेन्द्रने पार्श्वनाथ भगवान्की स्तुति भी की थी। पद्मप्रभ जिनेन्द्र कमलके भीतरी दलके समान लाल कान्तिके धारक थे ॥६३-६४॥ वासुपूज्य भगवान् पलाश पुष्पके समूहके समान लालवर्णके थे। मुनिसुव्रत तीर्थंकर नीलगिरि अथवा अंजनगिरिके समान श्याम- . वर्णके थे ॥६५॥ यदुवंश शिरोमणि नेमिनाथ भगवान् मयूरके कण्ठके समान नील वर्णके थे और बाकीके समस्त तीर्थंकर तपाये हुए स्वर्णके समान लाल-पीत वर्णके धारक थे ॥६६|| वासुपूज्य, मल्लि, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर ये पाँच तीर्थंकर कुमार अवस्थामें ही घरसे निकल गये थे, बाकी तीर्थंकरोंने राज्यपाट स्वीकार कर दीक्षा धारण की थी ॥६७।। इन सभी तीर्थंकरोंको देवेन्द्र तथा धरणेन्द्र नमस्कार करते थे, इनकी पूजा करते थे, इनकी स्तुति करते थे और सुमेरु पर्वतके शिखरपर सभी परम अभिषेकको प्राप्त हुए थे ॥६८॥ जिनकी सेदा समस्त कल्याणोंकी प्राप्तिका कारण है तथा जो तीनों लोकोंके परम आश्चर्यस्वरूप थे, ऐसे ये चौबीसों जिनेन्द्र निरन्तर तुम सबकी रक्षा करें ॥६९।।
अथानन्तर राजा श्रेणिकने गौतमस्वामीसे कहा कि हे गणनाथ! अब मुझे इन चौबीस तीर्थंकरोंकी आयुका प्रमाण जाननेके लिए मनकी पवित्रताका कारण जो परम तत्त्व है वह कहिए ।।७०।। साथ ही जिस तीर्थकरके अन्तरालमें रामचन्द्रजी हुए हैं हे पूज्य ! वह सब आपके प्रसादसे जानना चाहता हूँ ॥७१।। राजा श्रेणिकने जब बड़े आदरसे इस प्रकार पूछा तब क्षीरसागरके समान निर्मल चित्तके धारक परम शान्त गणधर स्वामी इस प्रकार कहने लगे ॥७२॥ कि हे श्रेणिक ! काल नामा जो पदार्थ है वह संख्याके विषयको उल्लंघन कर स्थित है अर्थात् अनन्त है, इन्द्रियोंके द्वारा उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता फिर भी महात्माओंने बुद्धिमें दृष्टान्तकी कल्पना कर उसका निरूपण किया है ।।७३।। कल्पना करो कि एक योजन प्रमाण आकाश सब ओरसे दीवालोंसे वेष्टित अर्थात् घिरा हुआ है तथा तत्काल उत्पन्न हुए भेड़के बालोंके अग्रभागसे भरा हुआ है ।।७४। इसे ठोक-ठोककर बहुत ही कड़ा बना दिया गया है, इस एक योजन लम्बे-चौड़े तथा गहरे गर्तको द्रव्यपल्य कहते हैं । जब यह कह दिया गया है कि यह कल्पित दृष्टान्त है तब यह गर्त किसने खोदा, किसने भरा आदि प्रश्न निरर्थक हैं ॥७५।। उस भरे हुए रोमगर्नमें से १. सुमेरुशिखरे । २. पद्यते म., ब.। ३. हे पूज्य ! प्रतीत- ख. । ४. कथिते म. ।
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