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विंशतितमं पर्व
भयैवं श्रेणिकः श्रुत्वा विनीतात्मा प्रसन्नधीः । प्रणम्य गणिनः पादौ पुनरूचे सविस्मयः ॥ १ ॥ प्रसादात्तव विज्ञातः प्रतिशत्रोः समुद्भवः । अष्टमस्य तथा भेदः कुलयोः कपिरक्षसाम् ॥२॥ साम्प्रतं श्रोतुमिच्छामि चरितं जिनचक्रिणाम् । नाथ पूर्वभवैर्युक्तं बुद्धिशोधनकारणम् ॥३॥ अष्टमो यश्व विख्यातो हली सकलविष्टपे । वंशे कस्य समुद्भूतः किं वा तस्य विचेष्टितम् ॥४॥ अमीषां जनकादीनां तथा नामानि सन्मुने । जिज्ञासितानि मे नाथ तत्सर्वं वक्तुमर्हसि ॥५॥ इत्युक्तः स महासत्त्वः परमार्थविशारदः । जगाद गणभृद्वाक्यं चारुप्रश्नाभिनन्दितः ॥ ६॥ शृणु श्रेणिक वक्ष्यामि जिनानां भवकीर्तनम् । पापविध्वंसकरणं त्रिदशेन्द्र नमस्कृतम् ॥७॥ ऋषभोऽजितनाथश्च संभवश्वामिनन्दनः । सुमतिः पद्मभासश्च सुपाइर्वः शशभृत्प्रभः ॥८॥ सुविधिः शीतलः श्रेयान् वासुपूज्योऽमलैप्रभुः । अनन्तो धर्मंशान्ती च कुन्थुदेवो महानरः ॥९॥ मलिः सुव्रतनाथश्च नमिनेंमिश्च तीर्थकृत् । पार्श्वोऽयं पश्चिमो वीरो शासनं यस्य वर्तते ॥ १०॥ नगरी परमोदारा नामतः पुण्डरीकिणी । सुसीमेत्यपरा ख्याता क्षेमेत्यन्यातिशोभना ॥११॥ तथा रत्नवरैर्दीप्ता रत्नसंचयनामिका । चतस्रः परमोदाराः सुव्यवस्था इमाः पुरः ॥ १२ ॥ वासुपूज्य जिनान्तानां जिनानामृषभादितः । आसन् पूर्वभवे रम्या राजधान्यः सदोत्सवाः ॥ १३॥ सुमहानगरं चारु तथारिष्टपुरं वरम् । सुमाद्विका च विख्याता तथासौ पुण्डरीकिणी ॥१४॥
अथानन्तर जिसकी आत्मा अत्यन्त नम्र थी और बुद्धि अत्यन्त स्वच्छ थी ऐसा श्रेणिक विद्याधरों का वर्णन सुन आश्चर्यचकित होता हुआ गणधर भगवान्के चरणोंको नमस्कार कर फिर बोला कि ||१|| हे भगवन् ! आपके प्रसाद से मैंने अष्टम प्रतिनारायणका जन्म तथा वानर बंश और राक्षस वंशका भेद जाना। अब इस समय हे नाथ! चौबीस तीर्थंकरों तथा बारह चक्रवर्तियोंका चरित्र उनके पूर्वभवोंके साथ सुनना चाहता हूँ क्योंकि वह बुद्धिको शुद्ध करनेका कारण है ॥२-३॥ इनके सिवाय जो आठवाँ बलभद्र समस्त संसार में प्रसिद्ध है वह किस वंश में उत्पन्न हुआ तथा उसकी क्या क्या चेष्टाएँ हुईं ! ||४|| हे उत्तम मुनिराज ! इन सबके पिता आदिके नाम भी मैं जानना चाहता हूँ सो हे नाथ ! यह सब कहने के योग्य हो ||५|| श्रेणिकके इस प्रकार कहने पर महाधैर्यशाली, परमार्थके विद्वान् गणधर भगवान् उत्तम प्रश्नसे प्रसन्न होते हुए इस प्रकारके वचन बोले कि हे श्रेणिक ! सुन, मैं तीर्थंकरोंका वह भवोपाख्यान कहूँगा जो कि पापको नष्ट करनेवाला है और इन्द्रोंके द्वारा नमस्कृत है ||६ - ७॥ ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपाखं, चन्द्रप्रभ, सुविधि ( पुष्पदन्त ), शीतल, श्रेयान्स, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्लि, ( मुनि ) सुव्रतनाथ, नमि, नेमि, पाश्वं और महावीर ये चौबीस तीर्थंकरोंके नाम हैं। इनमें महावीर अन्तिम तीर्थंकर हैं तथा इस समय इन्हींका शासन चल रहा है ||८-१०|| अब इनकी पूर्व भवकी नगरियोंका वर्णन करते हैं- अत्यन्त श्रेष्ठ पुण्डरीकिणी, सुसीमा, अत्यन्त मनोहर क्षेमा, और उत्तमोत्तम रत्नोंसे प्रकाशमान रत्नसंचयपुरी ये चार नगरियां अत्यन्त उत्कृष्ट तथा उत्तम व्यवस्थासे युक्त थीं । ऋषभदेवको आदि लेकर वासुपूज्य भगवान् तक क्रमसे तीन-तीन तीर्थंकरोंकी ये पूर्वं भवकी राजधानियाँ थीं । इन नगरियोंमें सदा उत्सव होते रहते थे ॥११- १३ || अवशिष्ट बारह तोर्थंकरोंकी पूर्वभवकी राजधानियाँ निम्न प्रकार थीं - सुमहानगर, अरिष्टपुर, सुमाद्रिका, पुण्डरीकिणी, सुसीमा, क्षेमा, वीतशोका, चम्पा, कौशाम्बी, १. पद्मनाभश्व म. । २. -प्रभुः म., क., ज., ब । ३. विमलनाथः । ४. महान् + अरः ।
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