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एकोनविंशतितमं पर्व
सत्यं शराः पञ्च मनोभवस्य स्युर्यद्य मुष्मिन् जगति प्रसिद्धाः । केन्या नियुक्तैः कथमेककालं ततः शतैर्वायुसुतं जघान ॥ ११९ ॥ अजात एवास्मि न यावदेनां प्राप्नोमि कन्यामिति जातचित्तः । समीरसूनुर्विभवेन युक्तः क्षणेन सुग्रीवपुरं जगाम ॥१२०॥ श्रुत्वा तमासन्नतरं प्रवृष्टः सुग्रीवराजोऽभ्युदियाय सद्यः । प्रयुज्यमानोऽर्धशतैर्हनमान् पुरं प्रविष्टः श्वसुरेण सार्धम् ॥ १२१ ॥ तस्मिंस्तदा राजगृहं प्रयाति प्रासादमालामणिजालकस्थाः । तदर्शनव्याकुलनेत्रपद्मा मुक्तान्यचेष्टा ललना बभूवुः ॥१२२॥ गवाक्षजालेन निरीक्षमाणा सुग्रीवजा वायुसुतस्य रूपम् । कामप्यवस्थां मनसा प्रपन्ना स्ववेदनीयां सुकुमारदेही ॥ १२३ ॥ अयं स नायं पुरुषोऽपरोऽयं कोऽप्येष सोऽसौ सखि सोऽयमेव । इत्यङ्गनाभिः परितर्क्यमाणो विवेश सुग्रीवपुरं हनूमान् ॥ १२४ ॥ तयोर्विवाहः परया विभूत्या विनिर्मितः सङ्गतसर्वबन्धुः । तौ दम्पती योग्यसमागमेन प्राप्तौ प्रमोदं परमं सुरूपौ ॥ १२५ ॥ जगाम बध्वा सहितो हनुमान् स्थानं निजं निर्वृतचित्तवृत्तिः । कृत्वा सशोकौ श्वसुरौ संवर्गों सुतावियोगात्स्ववियोजनाच्च ॥ १२६॥ तस्मिंस्तथा श्रीमति वर्तमाने सुते समस्त क्षितियातकीर्ती । महासुखास्वादसमुद्रमध्ये ममज्ज वायुः क्षितिपोऽञ्जना च ॥१२७॥
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जैसा कि इस संसार में प्रसिद्ध है कि कामदेवके पांच बाण हैं यदि यह बात सत्य हे तो कन्याने एक समय सौ बाणों द्वारा हनुमानको कैसे घायल किया ॥ ११९ ॥ | यदि मैं इस कन्याको नहीं प्राप्त करता हूँ तो मेरा जन्म लेना व्यर्थ है ऐसा मनमें विचारकर हनुमान् बड़े वैभवके साथ क्षण एकमें सुग्रीवके नगरकी ओर चल पड़ा ॥ १२० ॥ उसे अत्यन्त निकटमें आया सुन सुग्रीव राजा हर्षित होता हुआ शीघ्र ही उसकी अगवानीके लिए गया । तत्पश्चात् जिसे सैकड़ों अर्घं दिये गये थे ऐसे हनूमान्ने श्वसुर के साथ नगरमें प्रवेश किया ॥ १२१ ॥ | उस समय जब हनूमान् राजमहलकी ओर जा रहा था तब नगरकी स्त्रियाँ अन्य सब काम छोड़कर महलोंके मणिमय झरोखोंमें जा खड़ी हुई थीं और उस समय उनके नेत्रकमल हनूमान्को देखनेके लिए व्याकुल हो रहे थे || १२२|| सुकुमार शरीरकी धारक सुग्रीव की पुत्री पद्मरागा झरोखे से हनूमान्का रूप देखकर मन-ही-मन अपने आपके द्वारा अनुभव करने योग्य किसी अद्भुत अवस्थाको प्राप्त हुई || १२३ ॥ सखि ! यह वह पुरुष नहीं है, यह तो कोई दूसरा है, अथवा नहीं सखि ! यह वही है, इस प्रकार स्त्रियाँ जिसके विषय में तर्कणा कर रहीं थी ऐसे हनूमान्ने नगर में प्रवेश किया ॥ १२४ ॥ तदनन्तर बड़े वैभव के साथ उन दोनोंका विवाह हुआ । विवाह में समस्त बन्धुजन सम्मिलित हुए और अत्यन्त सुन्दर रूपके धारक दोनों दम्पति परम-प्रमोदको प्राप्त हुए || १२५ || जिसका चित्त सन्तुष्ट हो रहा था ऐसे हनूमान् पुत्री तथा अपने आपके वियोग से परिवार सहित सास- श्वसुरको शोकयुक्त करता हुआ नववधूके साथ अपने स्थानपर चला गया || १२६ || इस प्रकार जिसकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही थी ऐसे शोभा अथवा लक्ष्मी सम्पन्न पुत्रके रहते हुए राजा पवनंजय और अंजना महासुखानुभव रूपी सागर के मध्य में गोता लगा रहे थे ||१२७||
१. कन्या लियुक्तः म. । २. स्ववर्गौ ।
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