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एकोनविंशतितमं पर्व
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वसन्ततिलकावृत्तम् श्रियां च संपादिनि कर्णकुण्डले पुरेऽस्य चक्रे क्षितिपाभिवेचनम् । स्थितः स तत्रोत्तमभोगसंगतो यथोर्द्धवलोके भुवनस्य पालकः ॥१०॥ तथा नलः किष्कुपुरे शरीरजां प्रसिद्धिमेवा हरिमालिनी श्रुतिम् । श्रियं जयन्तीमपि रूपसंपदा ददौ विभूत्या परया हनूमते ॥१०४॥ पुरे तथा किन्नरगीतसंज्ञके स लब्धवान् किनरकन्यकाशतम् । इति क्रमेणास्य बभूव योषितां परं सहस्रादगणनं महात्मनः ॥१०५॥
उपजातिवृत्तम् भ्रमन्नसौ येन महीधरेऽस्थाच्छ्रीशैलसंशोऽत्र समीरसूनुः । श्रीशैल इत्यागतवानसौ तत् ख्यातिं पृथिव्यामिति रम्यसानुः ॥१०६॥ तदास्ति किष्किन्धपुरे महात्मा सुग्रीवसंज्ञः पुरखेचरेशः । तारेति तारापति 'कान्तवक्त्रा बभूव रामास्य रते समाना ॥१०७॥ तयोस्तनूजा नवपद्मरागा गुणः प्रतीता भुवि पद्मरागा । पद्मव रूपेण विशालनेत्रा मामण्डलप्रावृतवक्त्रपद्मा ॥१०८॥
उपेन्द्रवज्रवृत्तम् महेमकुम्मोन्नतपीवरस्तेनी सुरेन्द्रशस्त्रग्रहणोपमोदरी । विशाललावण्यतडागमध्यगा मलिम्लुचा सर्वजनान्तरात्मनाम् ॥१०९॥
उपजातिवृत्तम् विचिन्तयन्तौ पितरौ च तस्या योग्यं वरं शोभनविभ्रमायाः । नक्तं न निद्रां सुखतो लभेतां दिवा तु नैव प्रविकीर्णचित्तौ ॥१०॥
प्राप्त हुआ ।।१०१-१०२।। कन्या ही नहीं दी किन्तु लक्ष्मीसे भरपूर कर्णकुण्डलनामा नगरमें उसका राज्याभिषेक भी किया सो जिस प्रकार स्वर्गलोकमें इन्द्र रहता है उसी प्रकार वह उस नगरमें उत्तम भोग भोगता हुआ रहने लगा ॥१०३।। किष्कुपुरके राजा नलने भी रूपसम्पदाके द्वारा लक्ष्मीको जीतनेवाली अपनी हरिमालिनी नामकी प्रसिद्ध पुत्री बड़े वैभवके साथ हनूमान्को दी ।।१०४॥ इसी प्रकार किन्नरगीत नामा नगर में भी उसने किन्नरजातिके विद्याधरोंकी सौ कन्याएँ प्राप्त की। इस तरह उस महात्माके यथाक्रमसे एक हजारसे भी अधिक स्त्रियाँ हो गयीं ॥१०५॥ चकि श्रीशैल नामको धारण करनेवाले हनूमान् भ्रमण करते हुए उस पर्वतपर आकर ठहर गये थे इसलिए सुन्दर शिखरोंवाला वह पर्वत पृथिवीमें 'श्रीशैल' इस नामसे ही प्रसिद्ध हो गया ।।१०६॥
अथानन्तर उस समय किष्किन्धपुर नामा नगरमें विद्याधरोंके राजा उदारचेता सुग्रीव रहते थे। उनकी चन्द्रमाके समान मुखवाली तथा सुन्दरतामें रतिकी समानता करनेवाली तारा नामकी स्त्री थी ।।१०७।। उन दोनों के एक पद्मरागा नामकी पुत्री थी। उस पुत्रीका रंग नूतन कमलके समान था, गुणोंके द्वारा वह पृथिवीमें अत्यन्त प्रसिद्ध थी, रूपसे लक्ष्मीके समान जान पड़ती थी, उसके नेत्र विशाल थे, उसका मुखकमल कान्तिके समूहसे आवृत था, उसके स्तन किसी बड़े हाथीके गण्डस्थलके समान उन्नत और स्थूल थे, उसका उदर इन्द्रायुध अर्थात् वज्रके पकड़नेको जगहके समान कृश था, वह अत्यधिक सौन्दर्यरूपो सरोवरके मध्यमें संचार करनेवाली थी तथा सर्व मनुष्योंकी अन्तरात्माको चुरानेवाली थी ।।१०८-१०९।। सुन्दर विभ्रमोंसे युक्त उस
१. कान्ति म.।
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