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एकोनविंशतितम पर्व वदन्तीः करुणं स्वैरं किमपि त्रपयान्विताः । रावणः करुणाविष्टो जगादेति सहोदरम् ॥८३॥ अहोऽत्यन्तमिदं बाल त्वया दुश्चरितं कृतम् । कुलनार्यो यदानीता वन्दीग्रहणपारम् ॥८४॥ दोषः कोऽत्र वराकीणां नारीणां मुग्धचेतसाम् । खलीकारमिमा येन त्वयका प्रापिता मुधा ॥८५॥ पालिका मुग्धलोकस्य शत्रुलोकस्य नाशिका । गुरुशुश्रूषिणी चेष्टा ननु चेष्टा महात्मनाम् ॥८६॥ इत्युक्त्वा मोचितास्तेन क्षिप्रं ता ययुरालयम् । आश्वासिता गिरा साध्व्यः सद्यः शिथिलसाध्वसाः॥८७॥ आनाय्य वरुणोऽवाचि रावणेनाथ सत्रपः । भटदर्शनमात्रेण कृतरक्षोनताननः ॥८८॥ प्रवीण मा कृथाः शोकं युद्धग्रहणसंभवम् । ग्रहणं ननु वीराणां रणे सत्कीर्तिकारणम् ॥८९॥ द्वयमेव रणे वीरः प्राप्यते मानशालिमिः । ग्रहणं मरणं वापि कातरेश्च पलायितुम् ॥१०॥ पुरावदखिलं स त्वं राज्यं रक्ष निजे पदे । मित्रबान्धवसंपन्नः सकलोपद्रवोज्झितम् ॥११॥
उपजातिवृत्तम् अथैवमुक्तो वरुणः स वोरं कृत्वाञ्जलिं प्रावददेतमेव । विशालपुण्यस्य तवान लोके मूढो जनो तिष्ठति वैरभावे ॥१२॥
उपेन्द्र वज्रावृत्तम् अहो महद्धैर्य मिदं त्वदीयं मुनेरिव स्तोत्रसहस्रयोग्यम् । विहाय रत्नानि पराजितोऽहं त्वया यदभ्युन्नतशासनेन ॥१३॥
बन्धुजनोंसे रहित थीं, नम्र थीं, उनके शरीर कांप रहे थे, वे इच्छानुसार कुछ दयनीय शब्दोंका उच्चारण कर रही थीं तथा लज्जासे युक्त थीं। उन स्त्रियोंको देखकर रावण करुणायुक्त हो कुम्भकर्णसे इस प्रकार कहने लगा ॥८२-८३।। कि अहो बालक ! जो तू कुलवती स्त्रियोंको बन्दीके समान पकड़कर लाया है यह तूने अत्यन्त दुश्चरितका कार्य किया है ।।८४॥ इन बेचारी भोलीभाली स्त्रियोंका इसमें क्या दोष था जो तूने व्यर्थ ही इन्हें कष्ट पहुँचाया है ? ||८५।। जो चेष्टा मुग्धजनोंका पालन करनेवाली है, शत्रुओंका नाश करनेवाली है और गुरुजनोंकी शुश्रूषा करने
पथार्थमें वही महापरुषोंकी चेष्टा कहलाती है ॥८६॥ ऐसा कहकर उसने उन्हें शीघ्र ही छुड़वा दिया जिससे वे अपने-अपने घर चली गयीं। यही नहीं उसने साध्वी स्त्रियोंको अपनी वाणीसे आश्वासन भी दिया जिससे उन सबका भय शीघ्र ही कम हो गया ॥८७॥
__ अथानन्तर जो लज्जासे सहित था तथा जिसने सुभटोंके देखने मात्रसे राक्षसोंका मुख नीचा कर दिया था ऐसे वरुणको बुलाकर रावणने कहा कि हे प्रवीण ! युद्ध में पकड़े जानेका शोक मत करो क्योंकि युद्ध में वीरोंका पकड़ा जाना तो उनकी उत्तम कीर्तिका कारण है ।।८८-८९|| मानशाली वीर युद्ध में दो ही वस्तुएँ प्राप्त करते हैं एक तो पकड़ा जाना और दूसरा मारा जाना। इनके सिवाय जो कायर लोग हैं वे भाग जाना प्राप्त करते हैं ॥१०॥ तुम पहलेके समान ही समस्त मित्र और बन्धुजनोंसे सम्पन्न हो सकल उपद्रवोंसे रहित अपने सम्पूर्ण राज्यका अपने ही स्थानमें रहकर पालन करो ॥९१।। इस प्रकार कहनेपर वरुणने हाथ जोड़कर वीर रावणसे कहा कि इस संसारमें आपका पुण्य विशाल है जो आपके साथ वैर रखता है वह मूर्ख है ॥९२|| अहो! यह तुम्हारा बड़ा धैर्य है, यह मुनिके धैर्यके समान हजारों स्तवन करनेके योग्य है, कि जो तुमने दिव्य रत्नोंका प्रयोग किये बिना ही मुझे जीत लिया। यथार्थ में तुम्हारा शासन उन्नत है ।।२३।।
१. वदन्ती म. । २. अपयान्विता म. । ३. त्वयि का म. । ४. क्षिप्रा म. । ५. -साध्वसा म.। ६. संभव म,।
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