Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 465
________________ एकोनविंशतितम पर्व ४१५ कंचिदुल्काभिघातेन मस्तकोपर्यताडयत् । हेतुमुद्गरघातेन 'मिथ्यादृष्टिमिवार्हतः ॥५५॥ क्रीडन्तमिति तं दृष्ट्वा श्रीशैलं वानरध्वजम् । अभ्याजगाम वरुणो कोपारुणनिरीक्षणः ॥५६॥ श्रीशैलाभिमुखं दृष्ट्वा वारुणं राक्षसाधिपः । धावमानं रुरोधारिं गिरिवनिम्नगाजलम् ॥५७॥ वरुणस्याभवद् युद्धं यावन्नाथेन रक्षसाम् । वाजिवारणापादातशस्त्रसंघातसंकुलम् ॥५॥ तावत्पुत्रशतं तस्य बद्धं पवनसूनुना। चिरं युद्धसमुद्भुतखेदं विहतसैनिकम् ॥५९॥ श्रुत्वा पुत्रशतं बद्धं वरुणः शोकविह्वलः । विद्यास्मरणनिर्मुक्तो बभूव श्लथविक्रमः ॥६॥ प्राप्यास्य रावणश्छिद्रं विद्यामुच्छिद्य योधिनीम् । जीवग्राहमिमं क्षिप्रं जग्राह रणकोविदः ॥६॥ तदा वरुणचन्द्रयं भ्रष्टपुत्रकरश्रियः । उदयेन विमुक्तस्य रावणो राहुतामगात् ॥६२॥ शस्त्रपञ्जरमध्यस्थो भग्नमानश्च सोऽर्पितः । सादरं कुम्भकर्णस्य रक्षितुं विस्मयेक्षितः ॥६३॥ ततो विश्रमयन् सैन्यं रावणश्विरनिर्वृतः । उद्याने प्रवरे तस्थौ भवनोन्मादनामनि ॥६॥ समुद्रासंगशीतेन वायुनास्य व्यनीयत । सैन्यस्य रणजः खेदो वृक्षच्छायानुवर्तिनः ॥६५॥ गृहीतं नायकं ज्ञात्वा वरुणस्याखिलं बलम् । प्रविवेश पुरं भीतं पौण्डरीकं समाकुलम् ॥६६॥ तदेव साधनं तावत्त एव च महाभटाः । प्रधानस्य वियोगेन प्रापुर्व्यर्थशरीरताम् ॥६७॥ पुण्यस्य पश्यतौदार्य यदुद्भवति तद्वति । बहूनामुद्भवः पुंसां पतिते पतनं तथा ॥६८॥ जिस प्रकार कोई जिनभक्त हेतुरूपी मुद्गरके प्रहारसे मिथ्यादृष्टिके मस्तकपर प्रहार करता है उसी प्रकार वह किसीके शिरपर उल्काके प्रहारसे चोट पहुँचा रहा था ॥५५॥ इस प्रकार वानरको ध्वजासे सुशोभित हनूमान्को कोड़ा करते देख क्रोधसे लाल-लाल नेत्र करता हुआ वरुण उसके सामने आया ॥५६।। ज्योंही रावणने वरुणको हनूमान्के सामने दौड़ता आता देखा त्यों ही उसने शत्रुको बीचमें उस प्रकार रोक लिया जिस प्रकार कि पहाड़ नदीके जलको रोक लेता है ॥५७।। इधर जबतक वरुणका रावणके साथ घोड़े, हाथी, पैदल सिपाही तथा शस्त्रोंके समूहसे व्याप्त युद्ध हुआ ॥५८|| तबतक हनुमान्ने वरुणके सौके सौ ही पुत्र बांध लिये। वे चिरकाल तक युद्ध करतेकरते थक गये थे तथा उनके सैनिक मारे गये थे ॥५९|| सौके सौ ही पुत्रोंको बँधा सुनकर वरुण शोकसे विह्वल हो गया। वह विद्याका स्मरण भूल गया और उसका पराक्रम ढीला पड़ गया ॥६०|| रण-निपुण रावणने छिद्र पाकर वरुणकी योधिनी नामा विद्या छेद डाली तथा उसे जीवित पकड़ लिया ॥६१॥ उस समय जिसके पुत्ररूपी किरणोंकी शोभा नष्ट हो गयी थी तथा जो उदयसे रहित था ऐसे वरुणरूपी चन्द्रमाके लिए रावणने राहुका काम किया था ॥६२॥ जो शत्रुरूपी पिंजड़ेके मध्यमें स्थित था, जिसका मान नष्ट हो गया था और जिसे लोग बड़े आश्चर्यसे देखते थे ऐसा वरुण रक्षा करनेके लिए आदरके साथ कुम्भकर्णको सौंपा गया ॥६३।। तदनन्तर बहुत दिन बाद निश्चिन्तताको प्राप्त हुआ रावण सेनाको विश्राम देता हुआ भवनोन्माद नामक उत्कृष्ट उद्यानमें ठहरा रहा ॥६४।। वृक्षोंको छायाके नीचे ठहरी हुई इसकी सेनाका युद्धजनित खेद समुद्रके सम्बन्धसे शीतल वायुने दूर कर दिया था ॥६५॥ स्वामीको पकड़ा जानकर वरुणकी समस्त सेना भयभीत हो व्याकुलतासे भरे पुण्डरीक नगरमें घुस गयी ॥६६॥ यद्यपि वही सेना थी, और वे ही महायोद्धा थे तो भी प्रधान पुरुषके बिना सब व्यर्थ हो गये ।।६७॥ अहो ! पुण्यका माहात्म्य देखो कि पुण्यवान्के उत्पन्न होते ही अनेक पुरुषोंका उद्भव हो जाता है और उसके नष्ट होनेपर अनेक पुरुषोंका पतन हो जाता है ॥६८।। १. दुल्कासि -म.। २. मिथ्यादृष्टिरिवार्हतः म.। ३. चिरयुद्ध ख. । ४. वरुणयोधस्य म.। ५. भ्रष्टपुत्रकरः श्रियः म.। ६. -चरनिर्वृतः ख., ज, म. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604