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पदमपुराणे अथ भास्करकर्णस्तन्मथ्नाति स्म पुरं रिपोः । विह्वलीभूतनिश्शेषजनसंघातसंकुलम् ॥६५॥ लुण्टितं चात्र सकलं धनरत्नादिकं मटैः । अरातिपुरकोपेन न तु लोभवशस्थितैः ॥७॥ रतिविभ्रमधारिण्यः स्रवदस्राकुलेक्षणाः । विलपन्त्यो वराकाश्च गृह्यन्ते स्म वराङ्गनाः ॥७॥ स्तनावनम्रदेहास्ताश्चलत्पल्लवपाणयः । कूजन्त्यो बान्धवान् सर्वान् गृहीता निष्ठुरैर्न रैः ॥७२॥ विमानाभ्यन्तरन्यस्ता काचिदेवमभाषत । सखीं शोकग्रहग्रस्तसमस्तास्यनिशाकराः ॥७३॥ सखि ! शीलविनाशो मे यदि नाम भवेदिह । उल्लम्ब्यांशकपट्टेन मरिष्यामि न संशयः ॥७॥ संदिग्धमरणं काचिद् व्याहरन्ती मुहुः प्रियम् । संस्मृत्य तद्गुणान् मूळमानच्छे म्लानलोचना ॥७५॥ मातरं पितरं कान्तं भ्रातरं मातुलं सुतम् । आह्वयन्त्यः क्षरनेत्रास्ता मुनेरपि दुःखदाः ॥७६॥ काचिद्भास्करकर्णस्य शोमया हृतलोचना । जगादोपांशुविनम्मात् सखों कमललोचना ॥७७॥ सखि कापि ममोत्पन्ना दृष्ट्वैतं नरपुङ्गवम् । एतिर्यया कृतेवाह परायत्तशरीरिका ॥७॥ इति शुद्धा विरुद्धाश्च विकल्पास्तत्र योषिताम् । बभूवुः कर्मवैचित्र्याल्लोकोऽयं चित्रचेष्टितः ॥७९॥ कुबेर इव सदभूतिः प्रवीरभटसेवितः । जयनिस्वानमुखरः कान्तलीलासमन्वितः ॥८॥ अवतीर्य विमानान्ताद् भास्करश्रवणो मुदा । पुरो राक्षसनाथस्य धूसरोष्ठीरतिष्ठपत् ॥८१॥ ता विषादेवतीर्दृष्ट्वा वाष्पपूरितलोचनाः । बन्धुभी रहिता नम्राः सवेपथुशरीरिकाः ॥८२॥
अथानन्तर कुम्भकर्ण घबड़ाये हुए समस्त मनुष्योंके समूहसे व्याप्त शत्रुके उस नगरको नष्ट-भ्रष्ट करने लगा ॥६९॥ योद्धाओंने उस नगरकी धन-रत्न आदिक समस्त कीमती वस्तुएं लूट लीं। यह लूट शत्रुके नगरपर क्रोध होनेके कारण ही की गयी थी न कि लोभके वशीभूत होकर ॥७०॥ जो रतिके समान विभ्रमको धारण करनेवाली थीं, जिनके नेत्र झरते हुए आंसुओंसे व्याप्त थे तथा जो विलाप कर रही थीं ऐसी बेचारी उत्तमोत्तम स्त्रियां पकड़कर लायी गयीं ॥७१॥ जिनके शरीर स्तनोंके भारसे नम्र थे, जिनके पल्लवोंके समान कोमल हाथ हिल रहे थे और जो समस्त बन्धुजनोंको चिल्ला-चिल्लाकर पुकार रही थीं ऐसी उन स्त्रियोंको निष्ठुर मनुष्य पकड़कर ला रहे
थे॥७२॥ जिसका मखरूपी पर्ण चन्द्रमा शोकरूपी राहके द्वारा प्रसा गया था ऐसी विमानके भीतर डाली गयी कोई स्त्री सखीसे कह रही थी कि हे सखि ! यदि कदाचित् मेरे शीलका भंग होगा तो मैं वस्त्रकी पट्टीसे लटककर मर जाऊँगी इसमें संशय नहीं है ॥७३-७४।। जिसके मरनेमें सन्देह था ऐसे पतिको बार-बार पुकारती हुई म्लान लोचनोंवाली कोई स्त्री उसके गुणोंका स्मरण कर मूर्छाको प्राप्त हो रही थी ॥७५।। जो माता, पिता, भाई, मामा और पुत्रको बुला रही थीं तथा जिनके नेत्रोंसे आँसू झर रहे थे ऐसी वे स्त्रियाँ मुनिके लिए भी दुःखदायिनी हो रही थी अर्थात् उनकी दशा देख मुनिके हृदयमें भी दुःख उत्पन्न हो जाता था॥७६।। कुम्भकर्णकी शोभासे जिसके नेत्र हरे गये थे ऐसी कोई एक कमल-लोचना स्त्री एकान्त पाकर विश्वासपूर्वक सखीसे कह रही थी कि हे सखि ! इस श्रेष्ठ नरको देखकर मुझे कोई अद्भुत ही आनन्द उत्पन्न हुआ है और जिस आनन्दसे मानो मेरा समस्त शरीर पराधीन ही हो गया है ॥७७-७८॥ इस प्रकार कर्मोकी विचित्रतासे उन खियोंमें शुद्ध तथा विरुद्ध दोनों प्रकारके विकल्प उत्पन्न हो रहे थे सो ठोक ही है क्योंकि लोगोंकी चेष्टाएँ विचित्र हुआ करती हैं ॥७९॥ तदनन्तर जो कुबेरके समान समीचीन विभूतिका धारक था, अत्यन्त बलवान् योद्धा जिसकी सेवा कर रहे थे, जो जय-जयकी ध्वनिसे मुखर था और सुन्दर लीलासे सहित था ऐसे कुम्भकर्णने विमानसे उतरकर बड़े हर्षके साथ उन धूसर ओठोंवाली अपहृत स्त्रियोंको रावणके सामने खड़ा कर दिया ॥८०-८१॥ वे स्त्रियाँ विषादसे युक्त थीं, उनके नेत्र आंसुओंसे भरे हुए थे, १. लोभकशस्थितैः म. । २. किरणस्य म. । ३. मुनिपुङ्गवम् म.। ४. शुद्धविरुद्धाश्च म.। ५. विषादवती दृष्ट्वा म.। ६. -शरीरिका म. ।
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