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पद्मपुराणे
उपजातिवृत्तम् वायोः सुतस्यैव कथं प्रभावो निगद्यतामद्भुतकर्मणोऽपि । यतस्त्वदीयेन शुभेन साधो 'समादृतः सोऽपि महानुभावः ॥९४॥ न कस्यचिन्नाम महीयमेतां गोत्रक्रमाद्विक्रमकोशधारिता। वीरस्य भोग्येयमसौ भवांश्च तेषां स्थितो मूर्धनि शाधि लोकम् ॥१५॥ स्वामी त्वमस्माकमुदारकीत क्षमस्व दुर्वाक्यकृतं निकारम् । वक्तव्य मित्येव वदामि नाथ क्षमा तु दृष्टेव तवात्युदारा ॥१६॥ तेन त्वया सार्धमहं विधाय संबन्धमत्युग्नतचेष्टितेन । कृतार्थतामेमि ततो गृहाण तन्मे सुतां योग्यतमस्त्वमस्याः ॥१७॥ एवं गदित्वा तनुजां विनीतां प्रकीर्तितां सत्यवतीति नाम्ना। ललाम रूपां जनितां सुदेव्यां समर्पयत्तामरसाभवक्त्राम् ॥१८॥ तयोर्महान् संववृते विवाहे समुत्सवः पूजितसर्वलोकः । तयोहि निःशेषसमृद्धिमाजोरन्वेषणीयं न समस्ति किंचित् ॥१९॥ संमानितस्तेन च मानितेन कृतानुयानः कतिचिदिनानि ।। सुतावियोगव्यथितान्तरात्मा स्वराजधानी वरुणो विवेश ॥१०॥ कैलासकम्पोऽपि समेत्य लङ्का विधाय संमानमतिप्रधानम् । महाप्रभां चन्द्रनखातनूजां ददौ समीरप्रभवाय कन्याम् ॥१०१॥ अनङ्गपुष्पेति समस्तलोके गतां प्रसिद्धिं गुणराजधानीम् ।
अनङ्गपुष्पायुधभूतनेत्रां लब्ध्वा स तां तोषमुदारमारे ॥१०२॥ अथवा आश्चर्यकारी कार्य करनेवाले हनुमानका ही प्रभाव कैसे कहा जाये? क्योंकि हे सत्पुरुष! वह महानुभाव भी आपके ही शुभोदयसे यहाँ आया था ||९४॥ पराक्रमरूपी कोशसे जिसकी रक्षा की गयी ऐसी यह पृथिवी गोत्रकी परिपाटीके अनुसार किसीको प्राप्त नहीं हुई। यह तो वोर मनुष्यके भोगने योग्य है और आप वीर मनुष्योंमें अग्रसर हो अतः आप लोकका पालन करो ॥९५॥ हे उदार यशके धारक ! आप हमारे स्वामी हो। मेरे दुर्वचनोंसे आपको जो दुःख हुआ हो उसे क्षमा करो। हे नाथ ! ऐसा कहना चाहिए, इसीलिए कह रहा हूँ। वैसे आपकी अत्यन्त उदार क्षमा तो देख ही ली है ।।१६।। आप अत्यन्त चेष्टाके धारक हो इसलिए आपके साथ सम्बन्ध कर मैं कृतकृत्य होना चाहता हूँ। आप मेरी पुत्री स्वीकृत कीजिए क्योंकि इसके योग्य आप ही हैं ।।९७।। ऐसा कहकर उसने सुन्दर रूपकी धारक, सुदेवी रानीसे उत्पन्न, कमलके समान मुखवाली, सत्यवती नामसे प्रसिद्ध अपनी विनीत कन्या रावणके लिए समर्पित कर दी ॥९८॥ उन दोनोंके विवाहमें ऐसा बड़ा भारी उत्सव हुआ था कि जिसमें सब लोगोंका सम्मान किया गया तो ठीक ही है क्योंकि दोनों ही समस्त समृद्धिको प्राप्त थे, अतः उन्हें कोई भी वस्तु खोजनी नहीं पड़ी थी ।।९९।। इस प्रकार सम्मानको प्राप्त हए रावणने जिसका सम्मान किया था तथा रावण स्वयं जिसे भेजनेके लिए पीछे-पीछे गया था ऐसा वरुण अपनी राजधानीमें प्रविष्ट हुआ। वहाँ पुत्रीके वियोगसे कुछ दिन तक उसकी अन्तरात्मा दुःखी रही ॥१००॥ कैलासको कम्पित करनेवाले रावणने भी लंकामें आकर तथा बहुत भारी सम्मान कर हनूमान्के लिए चन्द्रनखाको कान्तिमती पुत्री समर्पित की। उस कन्याका नाम लोकमें 'अनंगपुष्पा' प्रसिद्ध था। वह गुणोंकी राजधानी थी और उसके नेत्र कामदेवके पुष्परूपी शस्त्र अर्थात् कमलके समान थे। उसे पाकर हनूमान् अत्यधिक सन्तोषको १. समाहितः म. । २. विदित्वा म.। ३. सुदेव्या म. । ४. ताम्ररसाभवक्त्राम् म. । ५. हनूमते । ६. प्राप
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