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पद्मपुराणें
पितरं मातरं मातुर्मातुलं च महाद्युतिः । प्रणम्याशेषवर्गं च संभाष्य विधिकोविदः ॥ १४ ॥ विमानं सूर्यसंकाशं समारुह्य दिशो दश । व्याप्य शस्त्रसमूहेन ययौ लङ्कापुरीं प्रति ॥ १५ ॥ त्रिकूटाभिमुखो गच्छन्विमानेऽसावराजत । मन्दराभिमुखो यद्वदैशानस्त्रिदशाधिपः ॥ १६ ॥ जलवीचिगिरौ तस्य रविरस्तमुपागमत् । समुद्रवीचिसंतानचुम्बितोरु नितम्बके ॥१७॥ तत्र रात्रिं सुखं नीत्वा कृतसद्भटसंकथः । महोत्साहेन संनह्य ययौ लङ्काहितेक्षणः ॥ १८ ॥ नानाजनपदान् द्वीपान्नगानूर्मिसमाहतान् । ग्रहांश्च जलधौ पश्यन् रक्षः सैन्यमवाप सः ॥ १९ ॥ दृष्ट्वा हनूमतः सैन्यं पुरुराक्षसपुङ्गवाः । विस्मयं परमं जग्मुः श्रीशैलाहितैलोचनाः ॥२०॥ चूर्णितोऽनेन शैलोऽसौ सोऽयं भव्यजनोत्तमः । इति शब्दमसौ शृण्वन् रावणस्य गतोऽन्तिकम् ॥२१॥ मारुतिं रावणो वीक्ष्य कुसुमैरभिपूरितात् । सौरमाकृष्टसंभ्रान्तगुञ्जन्मत्तमधुव्रतात् ॥२२॥ उपरिन्यस्तरत्नांशुच्छुरिताम्बरमण्डपात् । पर्यंन्तस्थितसामन्तादभ्युत्तस्थौ शिलातलात् ॥२३॥ परिष्वज्य हनूमन्तं विनयानतविग्रहम् । उपविष्टः समं तेन तत्र प्रीतिस्मिताननः ॥ २४॥ अन्योन्यं कुशलं पृष्ट्वा दृष्ट्वान्योन्यस्य संपदम् । रेमाते तौ महाभाग्यौ देवेन्द्राविव संगतौ ॥२५॥ अथावोचद्दशग्रीवः प्रमदान्वितमानसः । हनूमन्तं मुहुः पश्यन्नत्यन्तस्निग्धया दृशा ॥२६॥ अहो संवर्द्धितं प्रेम वायुना मम साधुना । यदयं प्रेषितः पुत्रः प्रख्यातगुणसागरः ॥२७॥ एनं प्राप्य महासत्त्वं 'तेजोमण्डलभूषितम् । नैव मे दुस्तरं किंचिद्भविष्यत्यत्रविष्टपे ॥२८॥
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विधि-विधान के जाननेमें निपुण था ऐसा हनूमान् माता-पिता तथा माता के मामाको प्रणाम कर और समस्त लोगों से सम्भाषण कर सूर्यके समान चमकते हुए विमानपर बैठकर शस्त्रोंके समूहसे दसों दिशाओंको व्याप्त करता हुआ लंकापुरीकी ओर चला || १३ - १५ || विमानमें बैठकर त्रिकूटाचलके सम्मुख जाता हुआ हनूमान् ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा कि मेरुके सम्मुख जाता हुआ ऐशानेन्द्र सुशोभित होता है || १६ | समुद्रकी लहरोंकी सन्तति जिसके विशाल नितम्बको चूम रही थी ऐसे जल-वीचि गिरिपर जब वह पहुंचा तब सूर्य अस्त हो गया || १७ || सो वहाँ उत्तम योद्धाओंके साथ वार्तालाप करते हुए उसने सुखसे रात्रि बितायी और प्रात:काल होनेपर बड़े उत्साहसे लंकाकी ओर दृष्टि रखकर आगे चला || १८ || इस तरह नाना देशों, द्वीपों, तरंगोंसे आहत, पर्वतों और समुद्र में किलोलें करते मगरमच्छों को देखता हुआ राक्षसोंकी सेनामें जा पहुँचा ||१९|| हनूमान् की सेना देखकर बड़े-बड़े राक्षसोंके शिरोमणि हनूमान् की ओर दृष्टि लगाकर परम आश्चर्यको प्राप्त हुए ||२०|| जिसने पर्वतको चूर्णं किया था यह वही भव्य जनोत्तम है इस शब्दको सुनता हुआ हनूमान् रावणके समीप गया || २१ | | उस समय रावण उस शिलातलपर बैठा था जो कि फूलोंसे व्याप्त था, सुगन्धिके कारण खिचे हुए मदोन्मत्त भ्रमंर जिसपर गुंजार कर रहे थे, जिसके ऊपर रत्नोंकी किरणोंसे व्याप्त कपड़ेका उत्तम मण्डप लगा हुआ था और जिसके चारों ओर सामन्त लोग बैठे थे । रावण हनूमान्को देखकर उस शिलातलसे उठकर खड़ा हो गया ||२२–२३।। तदनन्तर विनयसे जिसका शरीर झुक रहा था ऐसे हनुमानका आलिंगन कर वह प्रीति हँसता हुआ उसके साथ उसी शिलातलपर बैठ गया ||२४|| परस्परकी कुशल पूछकर तथा एक दूसरेकी सम्पदा देखकर दोनों महाभाग्यशाली इस तरह रमण करने लगे मानो दो इन्द्र ही परस्पर मिले हों ||२५||
अथानन्तर जो प्रसन्न चित्तका धारक था और अत्यन्त स्नेहभरी दृष्टिसे बार-बार उसीकी ओर देख रहा था ऐसा रावण हनूमान् से बोला कि ||२६|| अहो, सज्जनोत्तम पवनकुमारने मेरे साथ खूब प्रेम बढ़ाया है जो प्रसिद्ध गुणोंके सागरस्वरूप इस पुत्रको भेजा है ||२७|| इस महा१. श्रीशैल हितलोचनाः म । २. हनूमन्तम् । ३. छुरितावर म । ४. तेजोमङ्गल- म. ।
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