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एकोनविंशतितमं पर्व रावणोऽथ वहन् दीर्घ क्रोधमप्राप्तनिर्वृतिः। 'आडुढौकत् पुनः सर्वान् खेचरान् लेखहारिभिः ॥१॥ किष्किन्धेन्द्रस्तमभ्यागात्तथा दुन्दुभिसंज्ञकः । अलंकाराधिपो यश्च रैथनूपुरपस्तथा ॥२॥ विजयाईनगे ये च श्रेणिद्वयनिवासिनः । सर्वोद्योगेन ते सर्वे प्राप्ता रत्नश्रवःसुतम् ॥३॥ अथो हनूरुहद्वीपं नरो मस्तकलेखकः । प्राप्तः पवनवेगस्य प्रतिसूर्यस्य चान्तिकम् ॥४॥ लेखार्थमभिगम्यैतौ प्रयाणन्यस्तमानसौ । श्रीशैलस्योद्यतौ कर्तुमभिषेकं नृपास्पदे ॥५॥ कृतस्तदर्थमाटोपस्तूर्यशब्दादिको महान् । नराः कलशहस्ताश्च श्रीशैलस्य पुरः स्थिताः ॥६॥ किमेतदिति तो तेन पृष्टाविदमवोचताम् । राज्यं हनूरुहद्वीपे वत्स स्वं पालयाधुना ॥७॥ युद्धे सहायतां कर्तुमावामीशेन रक्षसाम् । आहूतौ तस्य कर्तव्यं प्रीत्यावाभ्यां यथोचितम् ॥८॥ रसातलपुरे तस्य वरुणः प्रत्यवस्थितः । दुर्जयोऽसौ महासैन्यः पुत्रदुर्गबलोत्कटः ॥९॥ हनूमानेवमुक्तः सन् विनयेनेदमब्रवीत् । मयि स्थिते न युक्तं वां गन्तुमायोधनं गुरू ॥१०॥ अविज्ञातरणास्वादो वत्स त्वमिति भाषिते । जगाद किं शिवस्थानं कदाचिल्लब्धमाप्यते ॥११॥ यदा निवार्यमाणोऽपि न स्थातं कुरुते मनः । तदा ताभ्यामनुज्ञातः स युवा गमनं प्रति ॥१२॥ स्नात्वा भुक्त्वा च पूर्वाह्न मङ्गलार्चितविग्रहः । कृतप्रगामः सिद्धानामहतां च प्रयत्नतः ॥१३॥
अथानन्तर रावणको सन्तोष नहीं हुआ सो उसने बहुत भारी क्रोध धारण कर पत्रवाहकोंके द्वारा समस्त विद्याधरोंको फिरसे बुलाया ॥१॥ किष्किन्धाका राजा, दुन्दुभि, अलंकारपुरका अधिपति, रथनूपुरका स्वामी तथा विजयार्द्ध पर्वतकी दोनों श्रेणियों में निवास करनेवाले अन्य समस्त विद्याधर सब प्रकारकी तैयारीके साथ रावणके समीप जा पहुँचे ॥२-३॥ तदनन्तर मस्तकपर लेखको धारण करनेवाला एक मनुष्य हनूरुह द्वीपमें पवनंजय और प्रतिसूर्यके पास भी आया ॥४॥ लेखका अर्थ समझकर दोनोंने रावणके पास जानेका विचार किया सो वहां जानेके पूर्व वे राज्यपर हनूमान्का अभिषेक करनेके लिए उद्यत हुए ॥५॥ राज्याभिषेककी बड़ी तैयारी की गयी। तुरही आदि वादित्रोंका बड़ा शब्द होने लगा और मनुष्य हाथमें कलश लेकर हनूमान्के सामने खड़े हो गये ॥६।। हनूमान्ने पवनंजय और प्रतिसूर्यसे पूछा कि यह क्या है ? तब उन्होंने कहा कि हे वत्स ! अब तुम हनूरुह द्वोपके राज्यका पालन करो ॥७॥ हम दोनोंको रावणने युद्ध में सहायता करने के लिए बुलाया है सो हमें प्रेमपूर्वक यथोचित रूपसे आज्ञा-पालन करना चाहिए ।।८|| रसातलपुरमें जो वरुण रहता है वही उसके विरुद्ध खड़ा हुआ है। उसकी बहुत बड़ी सेना है तथा वह पुत्र और दुर्गके बलसे उत्कट होनेके कारण दुर्जय है ।।९।। ऐसा कहनेपर हनूमान्ने विनयसे उत्तर दिया कि मेरे रहते हुए आप गुरुजनोंको युद्धके लिए जाना उचित नहीं है ।।१०।। 'हे बेटा ! अभी तुमने रणका स्वाद नहीं जाना है' ऐसा जब उससे कहा गया तब उसने उत्तर दिया कि जो मोक्ष प्राप्त होता वह क्या कभी पहले प्राप्त किया हुआ होता है ? जब रोकनेपर भी उसने रुकने का मन नहीं किया तब उन दोनोंने उस युवाको जानेकी स्वीकृति दे दी ॥११-१२।।
तदनन्तर प्रातःकाल स्नान कर जिसने अरहन्त और सिद्ध भगवान्को प्रयत्नपूर्वक प्रणाम किया था, भोजन कर शरीरपर मंगलद्रव्य धारण किये थे, जो महातेजसे सहित था तथा सब
१. अडुढौकत् म., ब.। २. रथनूपुरकस्तथा ब., म., ज.। ३. सूर्यशब्दादिको म.। ४. युवयोः । ५. लब्धुमाप्यते म.। ६. कृतः प्रणामः म. ।
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