Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 460
________________ पद्मपुराणे चिरात्संप्राप्तपत्नीकः पवनोऽपि सुचेष्टितः । तत्र गीर्वाणवद्रेमे सुतचेष्टाभिनन्दितः ॥ १२९ ॥ हनूमांस्तत्र संप्राप्य यौवनश्रियमुत्तमाम् । मेरुकूटस मानाङ्गः स्तेनकः सर्वचेतसाम् ॥ १३० ॥ सिद्धविद्यः प्रभावाढ्यो विनयज्ञो महाबलः । सर्वशास्त्रार्थकुशलः परोपकृतिदक्षिणः ॥ १३१ ॥ नाकोपभुक्तपाकस्य पुण्यशेषस्य भोजकः । रमते स्म पुरे तत्र गुरुपूजनतत्परः ।। १३२ || शार्दूलविक्रीडितम् ४१० श्रीशैलस्य समुद्भवेन सहितं वायोः समं कान्तया यो भावेन शृणोति सङ्गममिमं नानारसैरद्भुतम् । जन्तोस्तस्य समस्तसंसृतिविधिज्ञानेन लब्धात्मनो बुद्धिर्नाशुभकर्मणि प्रभवति प्रारब्धसत्कर्मणः ॥१३३॥ आयुर्दीर्घमुदारविभ्रमयुतं कान्तं वपुनरुज मेधां सर्वकृतान्तपारविषयां कीर्तिं च चन्द्रामलाम् । पुण्यं स्वर्गसुखोपभोगचतुरं लोके च यदुर्लभं तत्सर्व सदइनुते रविरिव स्फीतप्रभामण्डलम् ॥१३४॥ इत्यार्षे रविषेणाचार्यप्रोक्तं पद्मचरिते पवनाञ्जनासमागमाभिधानं नामाष्टादशं पर्व ॥ १८ ॥ 0 चित्तसे दो महीने व्यतीत किये । तदनन्तर पूछकर सम्मान प्राप्त करते हुए सब यथास्थान चले गये ॥१२८॥ चिरकालके बाद पत्नीको पाकर पवनंजयकी चेष्टाएँ भी ठीक हो गयीं और वह पुत्रकी चेष्टाओंसे आनन्दित होता हुआ वहाँ देवकी तरह रमण करने लगा ॥ १२९ ॥ हनूमान् भी वहाँ उत्तम यौवन-लक्ष्मीको पाकर सबके चित्तको चुराने लगा तथा उसका शरीर मेरु पर्वत के शिखरके समान देदीप्यमान हो गया ॥ १३०॥ उसे समस्त विद्याएँ सिद्ध हो गयी थीं, प्रभाव उसका निराला ही था, विनयका वह जानकार था, महाबलवान् था, समस्त शास्त्रोंका अर्थं करनेमें कुशल था, परोपकार करने में उदार था, स्वर्ग में भोगनेसे बाकी बचे पुण्यका भोगनेवाला था और गुरुजनोंकी पूजा करने में तलर था । इस तरह वह उस नगर में बड़े आनन्दसे क्रीड़ा करता था ।। १३१ - १३२ ॥ गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन् ! जो हनुमान के साथ-साथ नाना रसोंसे आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले इस अंजना और पवनंनयके संगमको भावसे सुनता है उसे संसारकी समस्त विधिका ज्ञान हो जाता है तथा उस ज्ञानके प्रभावसे उसे आत्म-ज्ञान उत्पन्न हो जाता है जिससे वह उत्तम कार्यं ही प्रारम्भ करता है और अशुभ कार्यमें उसकी बुद्धि प्रवृत्त नहीं होती ॥१३३॥ वह दीर्घ आयु, उदार विभ्रमोंसे युक्त, सुन्दर नीरोग शरीर, समस्त शास्त्रोंके पारको विषय करनेवाली बुद्धि, चन्द्रमाके समान निर्मल कीर्ति, स्वर्ग-सुखका उपभोग करनेमें चतुर, पुण्य तथा लोकमें जो कुछ भी दुर्लभ पदार्थ हैं उन सबको एक बार उस तरह प्राप्त कर लेता है जिस प्रकार कि सूर्य देदीप्यमान कान्तिके मण्डलको || १३४ || Jain Education International इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मचरितमें पवनंजय और अंजना के समागमका वर्णन करनेवाला अठारहवाँ पर्व समाप्त 'हुआ ॥१८॥ - १. योजकः म । २. नीरजं म । ३. सर्वशास्त्रपारविषयाम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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