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पद्मपुराणे
उपायेभ्यो हि सर्वेभ्यो वशीकरणवस्तुनि । कामिनीसंगमुज्झित्वा नापरं विद्यते परम् ॥ ९९|| अथेक्षांचक्रिरे वायुं वित्रस्ताङ्गं नभश्वराः । पुस्तकर्मसमाकारं वाचंयमतया स्थितम् ॥१००॥ यथार्हमुपचारं ते चक्रुरस्य तथाप्यसौ । न प्रयच्छति चिन्तास्थः प्रतिवाक्यं मुनिर्यथा ॥ १०१ ॥ पुत्रप्रीत्या तमाघ्राय पितरौ मस्तके मुहुः । आलिङ्ग्य च प्रमोदेन वाष्पस्थगितलोचनौ ॥१०२॥ ऊचतुर्वत्स संत्यज्य पितरौ कथमीदृशम् । चेष्टितं क्रियते त्वं हि विनीतानां धुरिस्थितः ॥ १०३ ॥ वरशय्योचितः कायस्त्वयाद्य विजने वने । संवाहितः कथं भीमे रात्रौ पादपगहरे ॥ १०४॥ इति संभाष्यमाणोऽपि नासौ वाचमुदाहरत् । मरणे निश्चितोऽस्मीति संज्ञयैव न्यवेदयत् ॥ १०५ ॥ व्रतमेतन्मयोपात्तं यदप्राप्य महेन्द्रजाम् । न भुज्जे न वदामीति तत्कथं भज्यतेऽधुना ॥ १०६ ॥ आस्तां तावप्रिया सत्यत्रतं संरक्षता मया । गुरू प्रश्वासितावेतौ कथमित्याकुलोऽभवत् ॥ १०७ ॥ ततस्तं नतमूर्धानं मौनव्रतसमाश्रितम् । मरणे निश्चितं ज्ञात्वा जग्मुर्विद्याधराः शुचम् ॥ १०८ ॥ समेतास्तत्पितृभ्यां ते विलेपुर्दीनमानसाः । संस्पृशन्तः करैरस्य शरीरं स्वदधारिभिः ॥१०९ ॥ ततः स्मितमुखोऽवोचत् प्रतिसूर्यो नभश्वरान् । मा भूत विक्लवा वायुमेष वो भाषयाम्यहम् ॥ ११० ॥ पवनं च परिष्वज्य जगादानुक्रमान्वितम् । कुमार शृणु यद्वृत्तं कथयामि तवाखिलम् ॥ १११ ॥ संध्या पर्वते रम्ये मुनेः कैवल्यमुद्गतम् । अनङ्गवीचिसंज्ञस्य देवेन्द्रक्षोभकारणम् ॥ ११२ ॥ वन्दित्वा तं प्रदीपेन रात्रावागच्छता मया । रुदितध्वनिरश्रावि स्त्रैणस्तत्रीस्वनोपमः ॥ ११३॥
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होते हुए उस स्थानपर उतरे ||१८|| वशीकरण के समस्त उपायोंमें स्त्रीसमागमको छोड़कर और दूसरा उत्तम उपाय नहीं है ||१९|| अथानन्तर जिसका समस्त शरीर ढीला हो रहा था, चित्रलिखित के समान जिसका आकार था और जो मोनसे बैठा था ऐसे पवनंजयको विद्याधरोंने देखा || १००|| यद्यपि सब विद्याधरोंने उसका यथायोग्य उपचार किया तो भी वह मुनिके समान चिन्ता में निमग्न बैठा रहा - किसीसे कुछ नहीं कहा || १०१ || माता-पिताने पुत्रकी प्रीति से उसका मस्तक सूंघा, बार-बार आलिंगन किया और इस हर्षसे उनके नेत्र आँसुओंसे आच्छादित हो गये ॥ १०२ ॥ | उन्होंने कहा भी कि हे बेटा ! तुम माता-पिताको छोड़कर ऐसी चेष्टा क्यों करते हो ? तुम तो विनीत मनुष्यों में सबसे आगे थे || १०३|| तुम्हारा शरीर उत्कृष्ट शय्यापर पड़ने के योग्य है पर तुमने आज इसे भयंकर एवं निर्जन वनके बीच वृक्षकी कोटर में क्यों डाल रखा है ? ॥ १०४ ॥ माता-पिता के इस प्रकार कहने पर भी उसने एक शब्द नहीं कहा । केवल इशारे से यह बता दिया कि मैं मरनेका निश्चय कर चुका हूँ || १०५ || मैंने यह व्रत कर रखा है कि अंजनाको पाये बिना मैं न भोजन करूंगा और न बोलूंगा। फिर इस समय वह व्रत कैसे तोड़ दूँ ? ॥१०६॥ अथवा प्रिया की बात जाने दो, सत्य व्रतकी रक्षा करता हुआ मैं इन माता-पिताको किस प्रकार सन्तुष्ट करूँ यह सोचता हुआ वह कुछ व्याकुल हुआ || १०७॥ तदनन्तर जिसका मस्तक नीचेकी ओर झुक रहा था और जो मौनसे चुपचाप बैठा था ऐसे पवनंजयको मरनेके लिए कृतनिश्चय जानकर विद्याधर शोकको प्राप्त हुए || १०८ || जिनके हृदय अत्यन्त दीन थे और जो स्वेदको धारण करनेवाले हाथोंसे पवनंजय के शरीरका स्पर्शं कर रहे थे ऐसे सब विद्याधर उसके माता-पिता के साथ विलाप करने लगे||१०९ ॥ तदनन्तर हँसते हुए प्रतिसूर्यने सब विद्याधरोंसे कहा कि आप लोग दुःखी नहीं । आप लोगोंसे पवन कुमारको बुलवाता हूँ ॥ ११०॥ तथा पवनंजयका आलिंगन कर क्रमानुसार उससे कहा कि हे कुमार ! सुनो, जो कुछ वृत्तान्त हुआ है वह सब मैं कहता हूँ ॥ १११ ॥ सन्ध्याभ्र नामक मनोहर पर्वतपर अनंगवीचि नामक मुनिराजको इन्द्रोंमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाला केवल-ज्ञान उत्पन्न हुआ था । । १९१२ || मैं उनकी वन्दना कर दीपक के सहारे रात्रिको चला आ रहा था १. प्रशासितावेतौ म.
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