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अष्टादशं पवं
"अढौकिषि तमुद्देशं गिरेः प्रस्थं समुन्नतम् । पर्यङ्कनाम्नि दृष्टा च गुहायामञ्जना मया ॥ ११४ ॥ निर्वासकारणं चास्या विज्ञाय विनिवेदितम् । मया प्राश्वासिता बाला रुदती शोकविह्वला ॥११५॥ तस्यामसूतपुत्रमन्वितं लक्षणैः शुभैः । यस्य भासा गुहा सासीत् सुवर्णेनेव निर्मिता ॥ ११६ ॥ स तोषं परमं प्राप्तः श्रुत्वा तां जातपुत्रिकाम् । ततस्तत इति क्षिप्रमपृच्छच्च समीरणः ॥११७॥ अवोचत् स ततस्तस्याः सुतोऽसौ चारुचेष्टितः । विमाने स्थाप्यमानः सन् पतितः शैलगह्वरे ॥ ११८ ॥ अत्रान्तरे पुनः प्राप्तो विषादं पवनंजयः । हाकारमुखरः सार्द्धं तया खेचरसेनया ॥ ११९ ॥ प्रतिभानुः पुनश्चोचे मा गाः शोकं ततः शृणु । यद्वृत्तं तत्समस्तं ते वायो दुःखं हरिष्यति ॥ १२०॥ ततो हाकारशब्देन मुखरीकृतदिङ्मुखाः । अवतीर्यानधं बालमैक्षिष्महि नगान्तरे ॥ १२१ ॥ चूर्णितश्च ततः शैलस्तेनासौ पतनात्तदा । श्रीशैल इति तेनासावस्माभिर्विस्मितैः स्तुतः ।।१२२।। वसन्तमाया साकं ततः पुत्रेण संयुता । विमानमञ्जनारोप्य मया नीता निजं पुरम् ॥ १२३॥ ततो हनूरुहाभिख्ये पुरे संवर्द्धितः शिशुः । हनूमानिति तेनास्य द्वितीयं नाम निर्मितम् ॥ १२४ ॥ एष ते कथिता सार्क पुत्रेणाद्भुतकर्मणा । मत्पुरे शीलसंपन्ना तिष्ठतीति विबुध्यताम् ॥१२५॥ पुरस्कृत्य ततो वायुं हृष्टा गगनचारिणः । क्षिप्रं हनूरुहं जग्मुरञ्जनादर्शनोत्सुकाः ॥ १२६॥ तेषां महोत्सवस्तत्र समागमकृतोऽभवत् । सुसंवेद्यस्तु दम्पत्योर्दुराख्यानो विशेषतः ॥ १२७॥ तत्र मासद्वयं नीत्वा खेचराः प्रीतमानसाः । आमन्त्र्य लब्धसंमाना ययुः स्थानं यथायथम् ॥ १२८ ॥
कि मैंने वीणाके शब्द समान किसी स्त्रीके रोनेका शब्द सुना ||११३ || मैं उस शब्दको लक्ष्य कर पर्वतकी ऊँची चोटी पर गया। वहाँ मुझे पर्यंक नामकी गुफा में अंजना दिखी ॥ ११४ ॥ | इसके निर्वासका कारण जो बताया गया था उसे जानकर शोकसे विह्वल होकर रोती हुई उस बालाको मैंने सान्त्वना दी ॥ ११५ ॥ उसी गुफामें उसने शुभ लक्षणोंसे युक्त ऐसा पुत्र उत्पन्न किया कि जिसकी प्रभासे वह गुफा सुवर्ण से बनी हुईके समान हो गयी ॥ ११६ ॥ अंजनाके पुत्र हो चुका है यह जानकर पवनंजय परम सन्तोषको प्राप्त हुआ और 'फिर क्या हुआ ? फिर क्या हुआ ?' यह शीघ्रता से पूछने लगा ॥ ११७ ॥ प्रतिसूर्यंने कहा कि उसके बाद अंजनाके उस सुन्दर चेष्टाओंके धारक पुत्रको विमान में बैठाया जा रहा था कि वह पर्वतकी गुफा में गिर गया ॥ ११८ ॥ यह सुनकर हाहाकार करता हुआ पवनंजय विद्याधरोंकी सेनाके साथ पुनः विषादको प्राप्त हुआ ||११९|| तब प्रतिसूर्यने कहा ' कि शोकको प्राप्त मत होओ। जो कुछ वृत्तान्त हुआ वह सब सुनो। हे पवन ! पूरा वृत्तान्त तुम्हारे दुःखको दूर कर देगा ॥ १२०॥ प्रतिसूर्य कहता जाता है कि तदनन्तर हाहाकारसे दिशाओंको शब्दायमान करते हुए हम लोगोंने नीचे उतरकर पर्वत के बीच उस निर्दोष बालकको देखा ॥१२१॥ चूँकि उस बालकने गिरकर पर्वतको चूर-चूर कर डाला था इसलिए हम लोगोंने विस्मित होकर उसकी 'श्रीशैल' इस नामसे स्तुति की ॥ १२२ ॥ तदनन्तर पुत्रसहित अंजनाको वसन्तमाला - के साथ विमानमें बैठाकर मैं अपने नगर ले गया || १२३ ।। आगे चलकर चूँकि उसका हनूरुह द्वीप में संवर्धन हुआ है इसलिए हनूमान् यह दूसरा नाम भी रखा गया है ॥ १२४ ॥ | इस तरह आपने जिसका कथन किया है वह शीलवती अंजना आश्चर्यजनक कार्यं करनेवाले पुत्रके साथ मेरे नगर में रह रही है सो ज्ञात कीजिए || १२५ ।। तदनन्तर हर्षसे भरे विद्याधर अंजना के देखने के लिए उत्सुकं हो पवनंजय को आगे कर शीघ्र ही हनूरुह नगर गये || १२६ ॥ वहाँ अंजना और पवनंजयका समागम हो जाने से विद्याधरोंको महान् उत्सव हुआ। दोनों दम्पतियोंको जो उत्सव हुआ वह स्वसंवेदनसे ही जाना जा सकता था विशेषकर उसका कहना अशक्य था ॥ १२७॥ वहाँ विद्याधरोंने प्रसन्न -
१. अढोकत म. । २. रुदन्ती क. । ३. तोषं च म., ज, ब, क । ४. वायोर्दुःखं म., क., ज. ।
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