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सप्तदर्श पर्व
जीवाष कुशाकारांष्ट्रां तीक्ष्णाग्रसंकटाम् । कुटिलां धारयन् रौद्रां मृत्योरपि भयंकराम् ॥ २२७ ॥ उद्यत्प्रलयतीब्रांशुमण्डलप्रतिमे वहन् । छुरयन्ती दिशां चक्रं नेत्रे विनासकारिणी ॥२२८॥ मस्तकन्यस्तपुच्छाग्रो नखकोटिक्षतक्षितिः । अष्टापदतटोरस्को जघनं घनमुद्वहन् ॥ २२९ ॥ मृत्युर्दैत्यः कृतान्तो. नु प्रेतेशो नु कलिः क्षयः । अन्तकस्यान्तको नु स्याद्भास्करो नु तनूनपात् ॥२३०॥ इति संजनिताशङ्कं जन्तुभिर्वीक्षितोऽखिलैः । आविर्बंभूव तदेशे केसरी विकटः क्षणात् ॥२३१॥ तस्य प्रतिनिनादेन पूतोदारकन्दराः । मीता इवातिगम्भीरं रुरुदुर्धरणीधराः ॥ २३२॥ मुद्गरेणेव घोरेग शब्देनास्य तरस्विना । श्रोत्रयोस्ताडिताश्च कुरिति चेष्टाः शरीरिणः ॥२३३॥ लोवने मुकुलीकुर्वन्नभिदुर्गे महीभृति । शार्दूलो दर्प निर्मुक्तः संचुकोप सवेपथुः ॥२३४॥ शेरपुष्पसमाकारहृष्टरोमाञ्चसंभ्रमः । वैभ्रतरलगुञ्जाक्षो विवेश विवरं गिरेः ॥ २३५॥ सारङ्गामुखविभ्रंसिदूर्वा कोमलपल्लवाः । यथापूर्वक्षयास्तस्थुर्भय स्तम्भितविग्रहाः ॥ २३६ ॥ संभ्रान्तबभ्रुनेत्राणामुत्कर्णानां विचेतसाम् । दानौघा निश्चलाङ्गानां मातङ्गानां विचिच्छिदुः ॥२३७॥ मण्डलस्यान्तरे कृत्वा शावकान् भयवेपितान् । तस्थुः पश्वङ्गना सङ्घा 'यूथपन्यस्तलोचनाः ॥ २३८॥ केसरिध्वनिवित्रस्ता कम्पमानशरीरिका । वपुराहारयोस्त्यागं चक्रे सालम्बमञ्जना ॥२३९॥
खींचनेवाली कुशाके समान तीक्ष्ण, नुकीली, सघन, कुटिल, रौद्र और मृत्युको भी भय उत्पन्न करनेवाली डाढ़को धारण कर रहा था । जो उदित होते हुए प्रलयकालीन सूर्य-बिम्बके समान लाल वर्ण एवं दिशाओंको व्याप्त करनेवाले भयंकर नेत्रोंसे युक्त था। जिसकी पूँछका अग्रभाग मस्तकपर रखा हुआ था, जो अपने नखाग्रसे पृथ्वीको खोद रहा था, जिसका वक्षःस्थल कैलासके तट के समान चौड़ा था, जो स्थूल नितम्ब - मण्डलको धारण कर रहा था । और जिसे सब प्राणी ऐसी आशंका करते हुए देखते थे कि क्या यह साक्षात् मृत्यु है ? अथवा दैत्य है अथवा कृतान्त है, अथवा प्रेतराज है, अथवा कलिकाल है अथवा प्रलय है ? अथवा अन्तक ( यमराज ) का भी अन्त करनेवाला है ? अथवा सूर्य है ? अथवा अग्नि है ? ।। २२४ - २३१॥ उसकी गर्जनाकी प्रतिध्वनिसे जिनकी बड़ी-बड़ी गुफाएँ भर गयी थीं ऐसे पर्वत, ऐसे जान पड़ते थे मानो भयभीत हो अत्यन्त गम्भीर रुदन ही कर रहे हों ||२३२ || उसके मुद्गर के समान भयंकर वेगशाली शब्दसे कानों में ताड़ित हुए प्राणी नाना प्रकारकी चेष्टाएँ करने लगते थे ||२३३|| जो सामने बड़े हुए दुर्गम पहाड़ पर अपने दोनों नेत्र लगाये हुए था तथा अत्यन्त अहंकारसे युक्त था ऐसे उस सिंहने अंगड़ाई लेते हुए बहुत ही कोप प्रकट किया || २३४|| जिसके शरीर में तृण-पुष्प के समान रोमांच निकल रहे थे तथा जिसके नेत्र गुमचीके समान लाल-पीले एवं चंचल थे ऐसे सिंहने पर्वतको गुफामें प्रवेश किया ||२३५|| उसे देख जिनके मुखसे दूर्वा और कोमल पल्लवों के ग्रास नीचे गिर गये थे तथा भयसे जिनका शरीर अकड़ गया था ऐसे हरिण ज्यों-के-त्यों खड़े रह गये || २३६ || जिनके पीले-पीले नेत्र घूम रहे थे, कान खड़े हो गये थे, मनकी गति बन्द हो गयी थी और शरीर निश्चल हो गया था ऐसे हाथियों के मदके प्रवाह रुक गये || २३७|| हरिणी आदि पशु-स्त्रियोंके जो समूह थे वे भयसे काँपते हुए बच्चों को बेरेके भीतर कर खड़े हो गये। उन सबके नेत्र अपने झुण्डके मुखियापर लगे हुए थे || २३८|| जो सिंहकी गर्जनासे भयभीत हो रही थी तथा जिसका शरीर कांप रहा था ऐसी अंजनाने 'यदि उपसर्गसे जीती बचूँगी तो शरीर और आहार ग्रहण करूँगी अन्यथा नहीं' इस
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१. क्षति: म । २. दैत्यकृतोऽनुस्यात्प्रेतसोऽनु ( ? ) म । ३. इतीरां जनिता म । ४ रुरुधुः म. । ५. शरत्पुष्पं समाकारो म. । ६. बभ्रुस्तरल म । ७ दानीघनिश्चला म । ८ पुरुखगासंघा म । ९. यूथविन्यस्त -ज ।
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