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पद्मपुराणे भयशेषेण चाभीलां मुग्धे तां जज्ञतुर्निशाम् । समासमां कृताशेषबन्धुनष्ठुयेसंकथे ॥२६७॥ ततो विध्वस्य नागारिं नागारिरिव पन्नगम् । प्रमोदवानसौ मद्यं पीतवान् सुमहागुणम् ॥२६॥ गन्धर्वकान्तयावाचि गन्धर्वो लब्धवर्णया । तदूरौ बाहुमाधाय तरत्तारकनेत्रया ॥२६९॥ स्थानकं यच्छ मे नाथ 'जिगासाम्यधुनोचितम् । उपदेशो हि गन्तव्यं कादम्बर्यामनुत्तमम् ॥२७॥ शेषं साध्वसमेते च वनिते परिमुञ्चतः । श्रुत्वा नौ मधुरं गीतं देवीयं हृदयंगमम् ॥२७१॥ अर्धरात्रे ततस्तस्मिन्नन्यशब्दविवर्जिते । संस्कृत्यावीवदद्वीणां गन्धर्वः श्रोत्रहारिणीम् ॥२७२॥ कांसिके वादयन्ती च प्रियवक्त्राहितेक्षणा । रत्नचूला जगौ मन्दं मुनिक्षोमणकारणम् ॥२७३॥ तयोर्घनं कृतं वाद्यं सुषिरं च कृतं ततम् । परिवर्गेण गम्भीरकरतलक्रमोचितम् ॥२७४॥ पाणिधैरेकतानेने मन्द्रध्वनिसमन्वितम् । तथा वैणविकैर्वाद प्रवीणेभ्रू विलासिमिः ॥२७५॥ प्रवीणाभः प्रवालामां वीणां चारूपमानिकाम् । कोणेनाताडयद्यक्षो गन्धर्वः काकलीबुधः ॥२७६॥ मध्यमर्षभगान्धारषड्जपञ्चमधैवतान् । निषादसप्तमांश्चक्रे स स्वरान्क्रममत्यजन् ॥२७७॥ भेजे वृत्तीयथास्थानं द्रुतमध्यविलम्बिताः । एकविंशतिसंख्याश्च मूर्च्छना नर्तितेक्षणाः ॥२७८॥ हाहाहहसमानं स गानं चक्रेऽथवाधिकम् । प्रायो गन्धर्वदेवानां प्रसिद्धिमिदमागतम् ॥२७९॥
परस्पर मिलकर अनिर्वचनीय सुखको प्राप्त हुई और अवसरके अनुसार वार्तालाप करनेमें उद्यत हो ऐसा समझने लगीं मानो हम लोगोंका दूसरा ही जन्म हुआ है ।।२६६॥ भय शेष रहनेसे उन भोलीभाली स्त्रियोंने उस भयावनी रात्रिको वर्षके बराबर भारी समझा। वे सारी रात जागकर समस्त बन्धुजनोंकी निष्ठुरताको चर्चा करती रहीं ॥२६७।।
तदनन्तर जिस प्रकार गरुड़ सांपको नष्ट कर देता है उसी प्रकार गन्धर्व सिंहको नष्ट कर बड़ा हर्षित हुआ और हर्षित होकर उसने महागुणकारी मद्यका पान किया ॥२६८॥ जिसके नेत्र चंचल हो रहे थे ऐसी गन्धर्वको विदुषी स्त्रीने उसकी जाँघपर अपनी भुजा रख गन्धर्वसे कहा कि ॥२६९।। हे नाथ ! मुझे अवसर दीजिए मैं इस समय कुछ गाना चाहती हूँ क्योंकि मद्यपानके अनन्तर उत्तम गाना गाना चाहिए ऐसा उपदेश है ॥२७०।। साथ ही हम दोनोंका मधुर दिव्य एवं हृदयहारी संगीत सुनकर ये दोनों स्त्रियाँ अवशिष्ट भयको भी छोड़ देंगी ॥२७१।। तदनन्तर जब अर्धरात्रि हो गयी और किसी दूसरेका शब्द भी सुनाई नहीं पड़ने लगा तब गन्धर्वने कानोंको हरनेवाली वीणा ठीक कर बजाना शुरू किया ॥२७२॥ और उसकी स्त्री रत्नचला पतिके मुखपर नेत्र धारण कर मंजीरा बजाती हुई धीरे-धीरे गाने लगी। उसका वह गाना मुनियोंको भी क्षोभ उत्पन्न करने का कारण था ॥२७३।। उस समय उन दोनोंके बीच घन, वाद्य, सुषिर और तत इन चारों प्रकारके बाजोंका प्रयोग चल रहा था और परिजनके अन्य लोग गम्भीर हाथोंसे क्रमानुसार योग्य ताल दे रहे थे ॥२७४॥ तबला बजानेमें निपुण देव एकचित्त होकर गम्भीर ध्वनिके साथ तबला बजा रहे थे तो बाँसुरी बजाने में चतुर देव भौंह चलाते हुए अच्छी तरह बाँसुरी बजा रहे थे ।।२७५।। उत्तम आभाको धारण करनेवाला यक्ष प्रवालके समान कान्तिवाली तथा सुन्दर उपमासे युक्त वीणाको तमूरेसे बजा रहा था। तो स्वरोंकी सूक्ष्मताको जाननेवाला गन्धर्व, क्रमको नहीं छोड़ता हुआ, मध्यम, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, पंचम, धैवत और निषाद इन सात स्वरोंको निकाल रहा था ।।२७६-२७७|| गाते समय वह गन्धर्व द्रुता, मध्या और विलम्बिता इन तीन वृत्तियोंका यथास्थान प्रयोग करता था और जिनसे नेत्र नाच उठते हैं, ऐसी इक्कीस मूर्च्छनाओं का भी यथावसर उपयोग करता था ॥२७८|| वह देवोंके गवैया जो हाहा-हूहू हैं उनके समान १. सिंहम् । २. गरुड इव । ३. सद्यः प्रीतवान् सुमहागुणम् । ४. -मादाय म.। ५. स्वनकं म. । ६. जिज्ञासाम्य म. । ७. उपदंशा ब., ज.। उपदंशो ख. । ८. विलासिनः म. ।
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