Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 445
________________ सप्तदशं पर्व ३९५ शृण्वेषा विष्टपण्यापियशसो विमलात्मनः । सुता महेन्द्रराजस्य नामतः प्रथिताञ्जना ॥३३५।। प्रह्लादराजपुत्रस्य गुणाकुपारचेतसः । पत्नी पवनवेगस्य प्राणेभ्योऽपि गरीयसी ॥३३६॥ सोऽन्यदा स्वरविज्ञातः कृत्वास्यां गर्मसंमवम् । शासनाजनकस्यागाद्रावणस्य सुहृद्युधे ॥३३७॥ दुःस्वभावतया श्वश्रवा ततः कारुण्यमुक्तया। मूढया जानकं गेहं प्रेषितेयं मलोज्झिता ॥३३८॥ ततो नादापिताप्यस्याः स्थानं भीतेरकीर्तितः । अलीकादपि हि प्रायो दोषाद्विभ्यति सजनाः ॥३३९॥ सेयमालम्बनैर्मुक्ता सकलैः कुलबालिका । मृगीसामान्यमध्यस्थान्महारण्यं समं मया ॥३०॥ एतस्कुलक्रमायाता भृत्यास्म्यस्याः सुचेतसः । विश्रम्भपदतां नीता प्रसादपरयानया ॥३४१॥ सेयमद्य प्रसूता नु वने नानोपसर्गके । न जानामि कथं साध्वी भविष्यति सुखाश्रया ॥३४२॥ निवेदितमिदं साधोवृत्तमस्याः पुलाकतः । सकलं तु न शक्नोमि कतु दुःखनिवेदनम् ॥३४३।। अथैतदीयसंतापविलीनस्नेहपूरितात् । अमान्तीव निरैदस्य हृदयात्साधु भारती ॥३४४॥ स्वस्त्रीया मम साध्वि त्वं चिरकालवियोगतः। प्रायेण नाभिजानामि रूपान्तरपरिग्रहात् ॥३४५॥ पिता विचित्रमानु, माता सुन्दरमालिनी । नामतः प्रतिसूर्योऽहं द्वीपे हनूरुहाभिधे ॥३४६॥ इत्युक्त्वा वस्तु यवृत्तं कौमारे सकलं स तत् । अञ्जनायै पतद्वाष्पनयनस्तमवादयत् ॥३४७॥ नितिमातुलाथासौ पूर्ववृत्तनिवेदनात् । तस्य कण्ठं समासज्य रुरोद चिरमध्वनि ॥३४८॥ तस्यास्तत्सकलं दुःखं वाष्पेण सह निर्गतम् । स्वजनस्य हि संप्राप्तावेषैव जगतः स्थितिः ॥३४९॥ आपत्तिमें पड़े हुएका उद्धार करना यह महापुरुषोंको शैली है ॥३३४|| सुनिए, यह लोकव्यापी यशसे युक्त, निर्मल हृदयके धारक राजा महेन्द्रकी पुत्री है, अंजना नामसे प्रसिद्ध है और जिसका चित्त गुणोंका सागर है ऐसे राजा प्रह्लादके पुत्र पवनवेगकी प्राणोंसे अधिक प्यारी पत्नी है ।।३३५३३६।। किसी एक समय वह आत्मीयजनोंकी अनजान में इसके गर्भ धारण कर पिताकी आज्ञासे युद्ध के लिए चला गया। वह रावणका मित्र जो था ॥३३७॥ यद्यपि यह अंजना निर्दोष थी तो भी स्वभावकी दुष्टताके कारण दयाशून्य मूर्ख सासने इसे पिताके घर भेज दिया ।।२३८।। परन्तु अपकीतिके भयसे पिताने भी इसके लिए स्थान नहीं दिया सो ठीक ही है क्योंकि प्रायःकर सज्जन पुरुष मिथ्यादोषसे भी डरते रहते हैं ।।३३९|| अन्तमें इस कुलवती बालाको जब सब सहारोंने छोड़ दिया तब यह निराश्रय हो मेरे साथ हरिणीके समान इस महावनमें रहने लगी ॥३४०। इस सुहृदयाकी मैं कुल-परम्परासे चली आयो सेविका हूँ सो सदा प्रसन्न रहनेवाली इसने मुझे अपना विश्वासपात्र बनाया है ॥३४१।। इसी अंजनाने आज नाना उपसर्गोसे भरे वनमें पुत्र उत्पन्न किया है। मैं नहीं जानती कि यह साध्वी पतिव्रता सुखका आश्रय कैसे होगी ।।३४२॥ आप सत्पुरुष हैं इसलिए संक्षेपसे मैंने इसका यह वृत्तान्त कहा है। इसने जो दुःख भोगा है उसे सम्पूर्ण रूपमें कहनेके लिए समर्थ नहीं हूँ ॥३४३|| अथानन्तर उस विद्याधरके हृदयसे वाणी निकली सो ऐसी जान पड़ती थी मानो अंजनाके सन्तापसे पिघले हुए स्नेहसे उसका हृदय पूर्णरूपसे भर गया था अतः वाणीको भीतर ठहरनेके लिए स्थान ही नहीं बचा हो ॥३४४।। उसने कहा कि हे पतिव्रते ! तू मेरी भानजी है। चिरकालके वियोगसे प्रायः तेरा रूप बदल गया है इसलिए मैं पहचान नहीं सका हूँ ॥३४५।। मेरे पिता विचित्रभानु और माता सुन्दरमालिनी हैं। मेरा नाम प्रतिसूर्य है और हनूरुह नामक द्वीपका रहनेवाला हूँ ॥३४६।। इतना कहकर जो-जो घटनाएँ कुमारकालमें हुई थीं वे सब उसने रोते-रोते अंजनासे कहलायीं ॥३४७|| तदनन्तर जब पूर्ववृत्तान्त कहनेसे अंजनाने मामाको पहचान लिया तब वह उसके गलेमें लगकर चिरकाल तक सिसक-सिसककर रोती रही ॥३४८।। अंजनाका वह १. जनकस्येदं जानकम् । जनकं म., ब. । २. स्थानभीतेः म. । ३. सामान्यम् + अधि + अस्थात् । ४. भूत्यास्म्यस्या म. । ५. संक्षेपतः । ६. संतापो मः । ७. समारुह्य म.। ८. मूर्धनि म., ब. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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