________________
३९४
पद्मपुराणे
एवं तयोः समालापे वर्तमाने नभस्तले । क्षणेनाविरभूत्तुङ्गं विमानं भास्करप्रभम् ॥३२०॥ ततो वसन्तमाला तं दृष्ट्वा देव्यै न्यवेदयद् । विप्रलापं ततो भूयः सैवमाशङ्कयाकरोत् ॥३२१॥ asteकारणवैरी मे 'किमेषोऽपनयेत् सुतम् । उताहो बान्धवः कश्चिद्भवेदेष समागतः ॥ ३२२ ॥ विप्रापं ततः श्रुत्वा तद्विमानं चिरं स्थितम् । अवातरत्कृपायुक्तो विद्याभृद्वियदङ्गणात् ॥ ३२३॥ स्थापयित्वा गुहाद्वार विमानं स ततोऽविशत् । पत्नीभिः सहितः शङ्कां वहमानो महानयम् ॥ ३२४ ॥ वसन्तमालया दत्ते स्वागतेऽसौ सुमानसः । उपाविशत्स्वभृत्येन प्रापिते च समासने ॥३२५॥ ततः क्षणमित्र स्थित्वा स भारत्या गभीरया । सारङ्गानुत्सुकीकुर्वन् घनगर्जितशङ्किनः ॥ ३२६ ॥ ऊंचे तां विनयं बिभ्रत्परं स्वागतदायिनीम् । दशनज्योत्स्नया कुर्वन् बालमासं विमिश्रिताम् ॥३२७॥ सुमर्यादे वदेयं का दुहिता कस्य वा शुभा । पत्नी वा कस्य कस्माद्वा महारण्यमिदं श्रिता ॥ ३२८ ॥ घटते नाकृतेरस्याः समाचारो विनिन्दितः । ततः कथमिमं प्राप्ता विरहं सर्वबन्धुभिः ॥ ३२९ ॥ भवन्त्येवाथवा लोके प्रायोऽकारणवैरिणः । माध्यस्थ्येऽपि निषण्णानां प्रेरिताः पूर्वकर्मभिः ॥ ३३० ॥ ततो दुःखमरोद्वेलवाष्प संरुद्ध कण्ठिका । कृच्छ्रेणोवाच 'सा मन्दं भूतलन्यस्तवीक्षणा ॥३३१॥ महानुभाव वाचैव ते विशिष्टं मनः शुभम् । रोगमूलस्य हिच्छाया न स्निग्धा जायते तरोः ॥३३२॥ प्रवेदनस्थानं गुणिनस्त्वादृशा यतः । निवेदयामि ते तेन शृणु जिज्ञासितं पदम् ॥ ३३३ ॥ दुःखं हि नाशमायाति सज्जनाय निवेदितम् । महतां ननु शैलीयं यदापद्गततारणम् ॥३३४॥
इस प्रकार उन दोनों सखियोंमें वार्तालाप चल ही रहा था कि उसी क्षण आकाशमें सूर्य के समान प्रभावाला एक ऊँचा विमान प्रकट हुआ || ३२० ॥ तदनन्तर वसन्तमालाने वह विमान देखकर अंजनाको दिखलाया सो अंजना आशंकासे पुनः ऐसा विप्रलाप करने लगी कि || ३२१॥ क्या यह मेरा कोई अकारण वैरी है जो पुत्रको छीन ले जायेगा ? अथवा कोई मेरा भाई ही आया है ।।३२२|| तदनन्तर अंजनाका उक्त विप्रलाप सुनकर वह विमान देर तक खड़ा रहा फिर कुछ देर बाद एक दयालु विद्याधर आकाशांगणसे नीचे उतरा || ३२३|| गुफाके द्वारपर विमान खड़ा कर वह विद्याधर भीतर घुसा । उसकी पत्नियाँ उसके साथ थीं और वह मन-ही-मन शंकित हो रहा था ||३२४|| वसन्तमालाने उसका स्वागत किया । तदनन्तर अपने सेवकके द्वारा दिये हुए सम आसनपर वह सहृदय विद्याधर बैठ गया || ३२५|| तत्पश्चात् क्षणभर ठहरकर अपनी गम्भीर वाणीसे मेघगर्जनाकी शंका करनेवाले चातकों को उत्सुक करता हुआ बड़ी विनयसे स्वागत करनेवाली वसन्तमालासे बोला । बोलते समय वह अपने दाँतोंकी कान्तिसे बालकको कान्तिको मिश्रित कर रहा था ।।३२६-३२७।। उसने कहा कि हे सुमर्यादे ! बता यह किसकी लड़की है ? किसकी शुभपत्नी है और किस कारण इस महावनमें आ पड़ी है ? || ३२८ || इसकी आकृतिसे निन्दित आचारका मेल नहीं घटित होता । फिर यह समस्त बन्धुजनोंके साथ इस विरहको कैसे प्राप्त हो गयी ? ॥३२९|| अथवा यह संसार है इसमें माध्यस्थ्यभावसे रहनेवाले लोगों के पूर्वं कर्मोंसे प्रेरित अकारण वैरी हुआ ही करते हैं ||३३०||
तदनन्तर दुःखके भार से अत्यधिक निकलते हुए वाष्पोंसे जिसका कण्ठ रुक गया था ऐसी वसन्तमाला पृथ्वीपर दृष्टि डालकर धीरे-धीरे बोली ||३३१|| कि हे महानुभाव ! आपके वचनसे ही आपके विशिष्ट शुभ हृदयका पता चलता है क्योंकि जो वृक्ष रोगका कारण होता है उसकी छाया स्निग्ध अथवा आनन्ददायिनी नहीं होती है ||३३२|| चूँकि आप जैसे गुणी मनुष्य अभिप्राय प्रकट करने के पात्र हैं अतः आपके लिए जिसे आप जानना चाहते हैं वह कहती हूँ, सुनिए ||३३३ || यह नीति है कि सज्जनके लिए बताया हुआ दुःख नष्ट हो जाता है क्योंकि
१. किमथोपनयेत्सुतम् म. । २. -नुत्सुखीकुर्वन् म. । ३. विमिश्रितम् म । ४. सानन्दं खं, ज., म., ब. |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org