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अष्टादशं पर्व
इदं ते कथितं जन्म श्रीशैलस्य महात्मनः । शृणु संप्रति वृत्तान्तं वायोर्मंगधमण्डन ||१|| वायुना वायुनेवाशु गल्वाभ्याशं खगेशिनेः । लब्धादेशेन संयुध्य नानाशस्त्राकुले रणे ||२|| कृतयुद्धश्चिरं खिन्नो जैलकान्तोऽपैवर्तितः । जातस्तस्य निमानोऽसौ पुष्कलः खरदूषणः ॥३॥ भूयश्च जलकान्तेन निना खरदूषणः । कृत्वा सन्धिमहं प्राप्य परमं राक्षसाधिपात् ||४|| अनुज्ञातोऽवहत् कान्तां हृदयेन त्वरान्वितः । जगामाभिजनं स्थानं महासामन्तमध्यगः ||५|| प्रविष्टश्च पुरं पौरैरभियातः सुमङ्गलैः । ध्वजतोरणमालाभिर्भासुराभिर्विभूषितम् ॥ ६॥ जगाम च निजं वेश्म दृष्टो वातायनस्थितैः । मुक्तप्रस्तुत कर्तव्यैः पौरनारीकदम्बकैः ||७|| विवेश च कृतार्घादिसंमानो मानिनां वरः । वाग्भिर्मङ्गलसाराभिः स्वजनैरभिनन्दितः ॥ ८ ॥ विधाय प्रणतिं तत्र गुरूणामितरैर्जनैः । नमस्कृतः क्षणं तस्थौ वार्ताभिर्त्ररमण्डपे ||९|| ततः प्रासादमारुक्षदुज्जनायाः समुन्मनाः । युक्तः प्रहसितेनैव पूर्व भावनयान्वितः ||१०|| रिक्तकं तस्य तं दृष्ट्वा प्रासादं प्राणतुल्यया । चेतनामुक्तदेहामं पपातेव मनः क्षणात् ॥ ११ ॥ ऊचे प्रहसितं चैव वयस्य किमिदं भवेत् । अञ्जनासुन्दरी नात्र दृश्यते पुष्करेक्षणा ||१२||
अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे मगध देशके मण्डनस्वरूप श्रेणिक ! यह तो मैंने तुम्हारे लिए महात्मा श्रीशैलके जन्मका वृत्तान्त कहा। अब पवनंजयका वृत्तान्त सुनो || १ || पवनंजय वायुके समान शीघ्र ही रावणके पास गया और उसकी आज्ञा पाकर नानाशस्त्रोंसे व्याप्त युद्ध क्षेत्रमें वरुण के साथ युद्ध करने लगा ||२|| चिरकाल तक युद्ध करनेके बाद वरुण वेद - खिन्न हो गया सो पवनंजयने उसे पकड़ लिया । खर-दूषणको वरुणने पहले पकड़ रखा था सो उसे छुड़ाया और वरुणको रावणके समीप ले जाकर तथा सन्धि कराकर उसका आज्ञाकारी किया। रावणने पवनंजयका बड़ा सम्मान किया ||३४|| तदनन्तर रावणकी आज्ञा लेकर हृदयमें कान्ताको धारण करता हुआ पत्रनंजय महासामन्तोंके साथ शीघ्र ही अपने नगरमें वापस आ गया || ५ || उत्तमोत्तम मंगल द्रव्योंको धारण करनेवाले नगरवासी जनोंने जिसकी अगवानी की थी ऐसा पत्रनंजय देदीप्यमान ध्वजाओं, तोरणों तथा मालाओंसे अलंकृत नगरमें प्रविष्ट हुआ ||६|| तदनन्तर अपना प्रारम्भ किया हुआ कर्म छोड़ झरोखोंमें आकर खड़ी हुई नगरवासिनी स्त्रियों के समूह जिसे बड़े हर्षसे देख रहे थे ऐसा पवनंजय अपने महलकी ओर चला ||७|| तत्पश्चात् जिसका अर्थ आदिके द्वारा सम्मान किया गया था और आत्मीयजनोंने मंगलमय वचनोंसे जिसका अभिनन्दन किया था ऐसे पवनंजयने महलमें प्रवेश किया ||८|| वहाँ जाकर इसने गुरुजनोंको नमस्कार किया और अन्य जनोंने इसे नमस्कार किया । फिर कुशलवार्ता करता हुआ क्षणभरके लिए सभामण्डप में बैठा ||९||
तदनन्तर उत्कण्ठित होता हुआ अंजना के महल में चढ़ा। उस समय वह पहले की भावना से युक्त था और अकेला प्रहसित मित्र ही उसके साथ था || १०|| वहाँ जाकर जब उसने महलको प्राण- वल्लभासे रहित देखा तो उसका मन् क्षण एकमें ही निर्जीव शरीरकी तरह नीचे गिर गया ॥ ११ ॥ उसने प्रहसितसे कहा कि मित्र ! यह क्या हैं ? यहाँ कमल नयना अंजना सुन्दरी नहीं दिख १. पवनञ्जयेन । २. रावणस्य । ३. वरुणः । ४. गृहीतः । ५ मूल्यभूतः प्रतिभूः (जमानतदार इति हिन्दी ) । ६. निमाय क., ख., ज । निनाय्य म । ७. खरदूषणम् ब । ८. सन्ध्यमहं म ।
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