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अष्टादशं पर्व
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ज्ञात्वा वायुकुमारं च वायुनेवातुरीकृतम् । उचे प्रहसितः सान्त्वं तद्दुःखादमिदुःखितः ॥२८॥ किं वयस्य विषण्णोऽसि कुरु चित्तमनाकुलम् । द्रक्ष्यते दयिता द्राक्त कियद्वेदं महीतलम् ॥२९॥ सोऽवोचद् गच्छ गच्छ त्वं सखे रविपुरं द्रुतम् । इदं ज्ञापय वृत्तान्तं गुरूणां मदनुष्ठितम् ॥३०॥ अहं पुनरसंप्राप्यं दयितां क्षितिसुन्दरीम् । न मन्ये जीवितं तस्मात्पर्यटाम्यखिलां भुवम् ॥३१॥ इत्युक्तस्तेन दुःखेन विमुच्य कथमप्यमुम् । आदित्यनगरी दीनः क्षिप्रं प्रहसितो ययौ ॥३२॥ पवनोऽपि समारुह्य नागमम्बरगोचरम् । विचरन् धरणी सर्वामेवं चिन्तामुपागतः ॥३३॥ शोकातपपरिम्ला पद्मकोमलविग्रहा। व गता मे मवेत् कान्ता वहन्ती हृदयेन माम् ॥३४॥ वैधुर्थारण्यमध्यस्था विरहानलदीपिता । वराकी कांदिशीकासौ दिशं स्यात् कामुपाश्रिता ॥३५॥ सत्यार्जवसमेतासौ गर्भगौरवधारिणी । वसन्तमालया स्यक्ता भवेत् किन्न महावने ॥३६॥ शोकान्धनयना किं नु व्रजन्ती विषमे पथि । पतिता स्याजरत्कूपे क्षुधिताजगरान्विते ॥३७॥ किं नु गर्भपरिक्लिष्टा श्वापदानां च भीषणम् । श्रुत्वा शब्दं परित्रस्ता प्राणान्मुक्तवती भवेत् ॥३८॥ अहो तृष्णार्दिता शुष्कतालुकण्ठा जलोज्झिते । विन्ध्यारण्ये विमुक्ता स्यात् प्राणः प्राणसमा मम ॥३९॥ किं वा मन्दाकिनी मुग्धा विविधग्राहसंकुलाम् । अवतीर्णा भवेद व्यूढा वारिणा तीवरंहसा ॥४०॥ दर्भसूचीविनिर्मिन्नचरणस्रुतशोणिता । अशक्ता पदमप्येकं गन्तुं किं न मृता भवेत् ॥४१
इधर जब प्रहसित मित्रको मालूम हुआ कि पवनंजय मानो वायुकी बीमारीसे ही दुःखी हो रहा है तब उसके दुःखसे अत्यन्त दुःखी होते हुए उसने सान्त्वनाके साथ कहा कि हे मित्र! खिन्न क्यों होते हो ? चित्तको निराकुल करो। तुम्हें शीघ्र ही प्रिया दिखलाई देगी, अथवा यह पृथिवी है ही कितनी-सी ? ॥२८-२९|| पवनंजयने कहा कि हे मित्र ! तुम शीघ्र ही सूर्यपुर जाओ और वहाँ गुरुजनोंको मेरा यह समाचार बतला दो ॥३०॥ मैं पृथिवीकी अनन्य सुन्दरी प्रियाको प्राप्त किये बिना अपना जीवन नहीं मानता इसलिए उसे खोजनेके लिए समस्त पृथिवीमें भ्रमण करूंगा ॥३२॥ यह कहनेपर प्रहसित बड़े दुःखसे किसी तरह पवनंजयको छोड़कर दीन होता हआ सूर्यपुरकी ओर गया ॥३२॥
इधर पवनंजय भी अम्बरगोचर हाथीपर सवार होकर समस्त पृथिवीमें विचरण करता हुआ ऐसा विचार करने लगा कि जिसका कमलके समान कोमल शरीर शोकरूपी आतापसे मुरझा गया होगा ऐसी मेरी प्रिया हृदयसे मुझे धारण करती हुई कहाँ गयी होगी? ॥३३-३४॥ जो विधुरतारूपी अटवीके मध्यमें स्थित थी, विरहाग्निसे जल रही थी और निरन्तर भयभीत रहती थी ऐसी वह बेचारी किस दिशामें गयी होगी ? ॥३५।। वह सती थी, सरलतासे सहित थी तथा गर्भका भार धारण करनेवाली थी। ऐसा न हुआ हो कि वसन्तमालाने उसे महावनमें अकेली छोड़ दो हो ॥३६।। जिसके नेत्र शोकसे अन्धे हो रहे होंगे ऐसी वह प्रिया विषम मार्ग में जाती हुई कदाचित् किसी पुराने कुएं में गिर गयी हो अथवा किसी भूखे अजगरके मुंहमें जा पड़ी हो ॥३७|| अथवा गर्भके भारसे क्लेशित तो थी ही जंगली जानवरोंका भयंकर शब्द सुन भयभीत हो उसने प्राण छोड़ दिये हों ॥३८॥ अथवा विन्ध्याचलके निर्जल वनमें प्याससे पीड़ित होनेके कारण जिसके तालु और कण्ठ सूख रहे होंगे ऐसी मेरी प्राणतुल्य प्रिया प्राणरहित हो गयी होगी ॥३९।। अथवा वह बड़ी भोली थी कदाचित् अनेक मगरमच्छोंसे भरी गंगामें उतरी हो और तीव्र वेगवाला पानी उसे बहा ले गया हो ॥४०॥ अथवा डाभकी अनियोंसे विदीर्ण हुए जिसके पैरोंसे रुधिर बह रहा होगा ऐसी प्रिया एक डग भी चलनेके लिए असमर्थ हो मर गयो होगी ॥४१।। १ सत्वम् म. । स्वान्तं ख.। २. दयिता सा ते म., ज., ख.। ३. परिमलानापद्म- म.। ४. दीपिका म. । ५. श्रुत- म.। ६. तु म. ।
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