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अष्टादशं पर्व
एवं तावदिदं वृत्तं शृणु श्रेणिक ते परम् । कथयामि गते तस्मिन् यत् पितृभ्यां विचेष्टितम् ॥ ५६ ॥ पवनंजयवृत्तान्ते तन्मित्रेण निवेदिते । समस्ता बान्धवा वायोः परमं शोकमागताः ॥ ५७ ॥ अथ केतुमती पुत्रशोकेनाभ्यावृतो भृशम् । ऊचे प्रहसितं वाष्पधाराजनितदुर्दिना ॥ ५८ ॥ युक्तं प्रहसितेदं ते कर्तुमीदृग्विचेष्टितम् । मम पुत्रं परित्यज्य यदेकाकी समागतः ॥ ५५ ॥ सोsवोचदम्ब तेनैव प्रेषितोऽहं प्रयत्नतः । न मे केनापि भावेन दत्तं स्थातुमुपान्तिके ॥६०॥ उवाच सा गतः क्वासौ सोऽवोचद्यत्र साञ्जना । काञ्जनेति च पृष्टेन को वेत्तीति निवेदितम् ||६१|| अपरीक्षणशीलानां सहसा कार्यकारिणाम् । पश्चात्तापो भवत्येव जनानां प्राणधारिणाम् ||६२॥ कान्तां यदि न पश्यामि मृत्युमेमि ततो ध्रुवम् । प्रतिक्षैत्रं कृतानेन स्वत्पुत्रेण सुनिश्चिता ॥ ६३ ॥ इति श्रुत्वा विलापं सा चकारेति सुदुःखिता । वेष्टिता स्त्रीसमूहेन स्रवलोचनवारिणा ॥ ६४ ॥ अज्ञात सत्यया कष्टं पापया किं मया कृतम् । येन पुत्रः परिप्राप्तो जीवनस्य तु संशयम् ॥ ६५ ॥ " क्रूरसंधानधारिण्या वक्रमानसया मया । असमीक्षितकारिण्या मन्दया किमनुष्टितम् ॥ ६६ ॥ मुक्तं वायुकुमारेण पुरमेतन्न शोभते । विजयार्धंगिरीशो वा सेवा वा रक्षसां विभोः ||६७ || goad रावणस्यापि सन्धिर्येन रणे कृतः । कस्तस्य मम पुत्रस्य सदृशोऽत्र नरो भुवि ॥ ६८ ॥ हा वत्स ! विनयाधार ! गुरुपूजनतत्पर ! जगत्सुन्दर ! विख्यातगुण ! क्कासि गतो मम ॥६९|| भवदुःखाग्नि संतां मातरं मातृवत्सल ! प्रतिवाक्यप्रदानेन कुरु शोकविवर्जिताम् ॥७०॥
थी ॥ ५५ ॥ गोतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन् ! यह वृत्तान्त तो मैंने तुझसे कहा । अब पवनंजय के घर से चले जानेपर माता-पिताकी क्या चेष्टा हुई यह कहता हूँ सो सुन ॥ ५६ ॥
मित्रने जाकर जब पवनंजयका वृत्तान्त कहा तब उसके समस्त भाई-बन्धु परम शोकको प्राप्त हुए ||५७|| अथानन्तर पुत्रके शोकसे पीड़ित केतुमती अश्रुओंकी धारासे दुर्दिन उपजाती हुई प्रहसितसे बोली कि हे प्रहसित ! क्या तुझे ऐसा करना उचित था जो तू मेरे पुत्रको छोड़कर अकेला आ गया ||५८-५९ ।। इसके उत्तर में प्रहसितने कहा कि हे अम्ब ! उसीने प्रयत्न कर मुझे भेजा है। उसने मुझे किसी भी भावसे वहाँ नहीं ठहरने दिया ॥ ६०॥ केतुमतीने कहा कि वह कहाँ गया ? प्रहसित ने कहा कि जहाँ अंजना है। अंजना कहाँ है ? ऐसा केतुमतीने पुनः पूछा तो प्रहसितने उत्तर दिया कि मैं नहीं जानता हूँ। जो मनुष्य बिना परीक्षा किये सहसा कार्य कर बैठते हैं उन्हें पश्चात्ताप होता ही है ।। ६१-६२ ॥ । प्रहसितने केतुमतीसे यह भी कहा कि तुम्हारे पुत्रने यह निश्चित प्रतिज्ञा की है कि यदि मैं प्रियाको नहीं देखूँगा तो अवश्य ही मृत्युको प्राप्त होऊँगा ||६३|| यह सुनकर केतुमती अत्यन्त दुःखी होकर विलाप करने लगी। उस समय जिनके नेत्र अश्रुझर रहे थे ऐसी स्त्रियोंका समूह उसे घेरकर बैठा था ॥ ६४॥ | वह कहने लगी कि सत्यको जाने बिना मुझ पापिनीने क्या कर डाला जिससे पुत्र जीवनके संशयको प्राप्त हो गया ||६५ ॥ क्रूर अभिप्रायको धारण करनेवाली कुटिलचित्त तथा बिना विचारे कार्य करनेवाली मुझ मूर्खाने क्या कर डाला ? || ६६ || वायुकुमारके द्वारा छोड़ा हुआ यह नगर शोभा नहीं देता । यही नगर क्यों ? विजयार्द्ध पर्वत ही शोभा नहीं देता और न रावणकी सेना ही उसके बिना सुशोभित है ||६७|| जो रावणके लिए भी कठिन थी ऐसी सन्धि युद्धमें जिसने करा दी मेरे उस पुत्रके समान पृथ्वीपर दूसरा मनुष्य है हो कौन ? ||६८ || हाय बेटा ! तू तो विनयका आधार था, गुरुजनोंकी पूजा करने में सदा तत्पर रहता था, जगत्-भर में अद्वितीय सुन्दर था, और तेरे गुण सर्वत्र प्रसिद्ध
फिर भी तू कहाँ चला गया || ६९ || हे मातृवत्सल ! जो तेरे दुःखरूपी अग्निसे सन्तप्त हो रही १. तद्विप्रेण म. । २. नाभ्याहृता म । नाभ्याहता ज । ३. सदुस्सहा म । ४. क्रूरसाधन -ख., ज., म. । क्रूरयाधान- क. ।
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