Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 452
________________ ४०२ पपपुराणे ग्रहमेतत्तया शून्यं वनं मे प्रतिमासते । आकाशमेव वा क्षिप्रं तस्या वार्ताधिगम्यताम् ॥१३॥ आप्तवर्गात् परिज्ञाय वार्ता प्रहसितोऽवदत् । यथावत् सकलां तस्मै हृदये क्षोदकारिणीम् ॥१४॥ वञ्चित्वा स्वजनं सोऽथ समं मित्रेण तत्क्षणम् । महेन्द्रनगरं तेन प्रवृत्तो गन्तुमुन्मनाः ॥१५॥ तस्यासन्नभुवं प्राप्य मित्रमेवमभाषत । मन्यमानोऽकसंप्राप्तां दयितां प्रमदान्वितः ॥१६।। पश्य पश्य पुरस्यास्य वयस्य रमणीयताम् । अञ्जनासुन्दरी यत्र वर्तते चारुविभ्रमा ॥१७॥ कैलासकूटसंकाशा यत्र प्रासादपङ्क्तयः । उद्यानपादपैर्गुप्ताः प्रावृषेण्यधनप्रभैः ।।१८॥ ब्रुवन्नेवं स संप्राप्तः पुरं पुरुषसत्तमः । सुहृदातचित्तेन विहितप्रतिभाषणः ॥१९॥ ततो जनौघतः श्रत्वा संप्राप्तं पवनजयम ।। अर्घादिनोपचारेण श्वसुरोऽस्य समागमत् ॥२०॥ पुरस्सरेण तेनासौ प्रीतियुक्तेन चेतसा । निजं प्रवेशितः स्थानं पौरैः सादरमीक्षितः ॥२१॥ विवेश भवनं चास्य कान्तादर्शनलालसः । संकथामिमुहूतं च तस्थौ संवर्गणं भजन ॥२२॥ ततस्तत्राप्यसौ कान्तामपश्यद्विरहातुरः । अपृच्छद् बालिका कांचिदन्तर्भवनगोचराम् ॥२३॥ अपि बालेऽत्र जानासि मस्त्रिया वर्ततेऽञ्जना । सावोचदेव नास्त्यत्र त्वप्रियेत्यसुखावहम् ॥२४॥ वज्रेणेव ततस्तस्य तेन वाक्येन चूर्णितम् । हृदयं पूरितौ कौँ तप्तक्षाराम्बुनेव च ॥२५॥ वियुक्त इव जीवेन क्षणं चाभूत् स निश्चलः । शोकपालेयसंपर्कविच्छायमुखपङ्कजः ॥२६॥ निर्गत्यासौ ततस्तस्माच्छद्मना इवासुरात् पुरात् । बभ्राम धरणीं वार्तामधिगन्तुं स्वयोषितः ॥२७॥ लिए उद्यत हुआ रही है ॥१२॥ उसके बिना यह घर मुझे वन अथवा आकाशके समान जान पड़ता है। अतः शीघ्र ही उसका समाचार मालम किया जाये॥१३॥ तदनन्तर आप्तवर्गसे सब समाचार जानकर प्रहसितने हृदयको क्षुभित करनेवाला सब समाचार ज्योंका त्यों पवनंजयको सुना दिया ॥१४॥ उसे सुन, पवनंजय आत्मीयजनोंको छोड़ उसी क्षण मित्रके साथ उत्कण्ठित होता हुआ महेन्द्रनगर जानेके उद्यत हआ ॥१५॥ महेन्द्रनगरके निकट पहुँचकर पवनंजय. प्रियाको गोदमें आयी समझ हर्षित होता हुआ मित्रसे बोला कि हे मित्र ! देखो, इस नगरकी सुन्दरता देखो जहाँ सुन्दर विभ्रमोंको धारण करनेवाली प्रिया विद्यमान है ॥१६-१७॥ और जहाँ वर्षाऋतुके मेघोंके समान कान्तिके धारक उद्यानके वृक्षोंसे घिरी महलोंकी पंक्तियाँ कैलास पर्वतके शिखरोंके समान जान पड़ती है ।।१८। इस प्रकार कहता और अभिन्न चित्तके धारक मित्रके साथ वार्तालाप करता हुआ वह महेन्द्रनगरमें पहुंचा ॥१९॥ तदनन्तर लोगोंके समूहसे पवनंजयको आया सुन इसका श्वसुर अर्घादिकी भेंट लेकर आया ॥२०॥ आगे चलते हुए श्वसुरने प्रेमपूर्ण मनसे उसे अपने स्थानमें प्रविष्ट किया और नगरवासी लोगोंने उसे बड़े आदरसे देखा ॥२१॥ प्रियाके दर्शनकी लालसासे इसने श्वसुरके घरमें प्रवेश किया। वहाँ यह परस्पर वार्तालाप करता हुआ मुहूर्त भर बैठा ॥२२॥ परन्तु वहाँ भी जब इसने कान्ताको नहीं देखा तब विरहसे आतुर होकर इसने महलके भीतर रहनेवाली किसी बालिकासे पूछा कि हे बाले ! क्या तू जानती है कि यहाँ मेरी प्रिया अंजना है ? बालिकाने यही दुःखदायी उत्तर दिया कि यहाँ तुम्हारी प्रिया नहीं है ।।२३-२४॥ तदनन्तर इस उत्तरसे पवनंजयका हृदय मानो वज्रसे ही चूणं हो गया, कान तपाये हुए खारे पानीसे मानो भर गये और वह स्वयं निर्जीवकी भांति निश्चल रह गया। शोकरूपी तुषारके सम्पर्कसे उसका मुखकमल कान्तिरहित हो गया ॥२५-२६|| तदनन्तर वह किसी 'छलसे श्वसुरके नगरसे निकलकर अपनी प्रियाका समाचार जाननेके लिए पृथिवीमें भ्रमण करने लगा ॥२७॥ १. संभाषणाम् । २. गोचरम् म.। ३. सुनिश्चल: म., ब., ख., ज. । ४. श्वसुरात् म. । ५. सुयोषितः म., ख., ज., ब.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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